Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 402
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा संदर्भ में बौद्ध और जैन-मतों की विभिन्नता की चर्चा करते हुए बौद्ध - मंतव्यों की समीक्षा की गई है। इस चर्चा में सामान्यतया पूर्वपक्ष की 'बाल की खाल' निकालने का ही प्रयत्न किया गया है। हमारी दृष्टि में हेत्वाभासों को लेकर दोनों में मौलिक अन्तर नहीं है । अनेकांतिकहेत्वाभास का बौद्धों ने जो अर्थ ग्रहण किया है, वह जैनों के अनेकांतवाद की सम्यक् समझ के अभाव के कारण ही है । 400 जहाँ तक प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के सोलहवें अध्याय का प्रश्न है, इसमें एक ओर, बौद्ध-विज्ञानवादियों के बाह्यार्थ के निषेध की समीक्षा की गई है, तो दूसरी ओर, बौद्ध-विज्ञानवादियों की प्रमाण और प्रमाणफल की अभिन्नता की भी समीक्षा की गई है। यह सत्य है कि यदि बाह्यार्थ की सत्ता ही नहीं मानेंगे, तो फिर प्रमाण और प्रमाणफल में अभिन्नता स्वीकार करनी होगी, किन्तु जैन- दार्शनिकों का कहना है कि बाह्यार्थ केवल स्वप्न या काल्पनिक नहीं है, यह यथार्थ में है, क्योंकि स्वप्न भी उन्हीं के सम्भव होते हैं, जिनका अनुभव होता है और अनुभव केवल कल्पनाजन्य नहीं होता है, अतः, बाह्यार्थ की सत्ता को स्वीकार करना आवश्यक है । हमारे ज्ञान का विषय तो बाह्यार्थ है । यदि हम उनकी सत्ता को अस्वीकार करेंगे तो फिर ज्ञान भी नहीं होगा। ज्ञान केवल चैत्तसिक कल्पनाजन्य नहीं है, उसका बाह्य विषय मानना आवश्यक है । इसी प्रकार रत्नप्रभ के अनुसार, प्रमाण और प्रमाणफल भी एकान्तरूप से अभिन्न नहीं हैं । जहाँ बौद्ध दार्शनिक प्रमाण और प्रमाणफल में अभिन्नता स्वीकार करते हैं, वहीं जैन- दार्शनिक प्रमाण और प्रमाणफल में कथंचित्-अभेद और कथंचित्-भेद मानते हैं, यद्यपि बौद्ध और जैन- दोनों ही दार्शनिक प्रमाण को ज्ञानरूप मानते हैं और यदि प्रमाण ज्ञानरूप ही है, तो यह भी मानना होगा कि प्रमाण का फल भी ज्ञानरूप है और ऐसी स्थिति में दोनों में अभिन्नता होगी, किन्तु प्रमाण के माध्यम से न केवल बाह्य-वस्तु का ज्ञान होता है, अपितु उस वस्तु के सम्बन्ध में अज्ञान का भी निवारण ही होता है, अतः, जैनों का कहना यह है कि अनेकान्त की दृष्टि से प्रमाण और प्रमाणफल में कथंचित्-भेद और कथंचित् - अभेद है । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के सत्रहवें अध्याय में हमने इस शोधप्रबन्ध के विभिन्न अध्यायों के सारतत्त्व को ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, जिससे यह ज्ञात हो सके कि जैन और बौद्धों की परम्पराओं में किस प्रकार की भिन्नता और किस प्रकार की अभिन्नता रही हुई है, साथ ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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