Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 376
________________ 374 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा अध्याय- 16 बौद्धों के बाह्यार्थ - निषेध एवं प्रमाण तथा प्रमाणफल की अभिन्नता की समीक्षा बाह्यार्थ - निषेध की समीक्षा बौद्ध - पूर्वपक्ष बौद्ध-धर्म-दर्शन सामान्यतः दो सम्प्रदायों में विभक्त हुआ - 1. हीनयान और 2. महायान । इसी महायान - सम्प्रदाय में दार्शनिक - दृष्टि से पुनः दो भेद हुए - 1. योगाचार (विज्ञानवाद) और 2. शून्यवाद । इस योगाचार या विज्ञानवाद में अनेक आचार्य हुए। इनमें असंग, वसुबन्धु आदि प्रसिद्ध हैं । बौद्धदर्शन के विज्ञानवादी - सम्प्रदाय की यह मान्यता है कि ज्ञान तो मात्र स्वप्रकाशक है, अतः ज्ञेय की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। एकमात्र विज्ञान ( चित्तधारा) ही सत्य है, बाह्यार्थ विज्ञान का ही प्रतिबिम्ब है। लंकावतारसूत्र में कहा गया है- दृश्यं न विद्यते बाह्यं चित्तं चित्रं हि दृश्यते, देहयोग प्रतिष्ठानं चित्तमात्रं वदाम्यहम् ( लंकावतारसूत्र 3/33)1, अर्थात् चित्त की ही एकमात्र सत्ता है। विज्ञानवादी बौद्ध - दार्शनिक धर्मकीर्ति का मानना है कि चित्त ही एकमात्र सत्ता है । दृश्यमान् जगत् उसका विकार है, वह उससे भिन्न नहीं है। नीलवर्ण और उसके ज्ञान में कोई अन्तर नहीं है। यह संसार उस विज्ञान से पृथक् पदार्थ नहीं है, बल्कि उसी का परिणाम है । 588 - Jain Education International - रत्नप्रसूरि की समीक्षा बौद्धों के इस ज्ञानाद्वैत या बाह्यार्थ निषेधवाद की समीक्षा करते हुए रत्नप्रभसूरि लिखते हैं- यदि ज्ञान से ज्ञेय पृथक् नहीं है, तो ज्ञान निर्णय किसका करेगा ? निर्णयात्मक ही होता है। यदि हम एकान्तरूप से यह मानेंगे कि ज्ञान ही प्रमाण है और ज्ञेय की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, तो ज्ञान अनिर्णयात्मक और मात्र काल्पनिक ही होगा और अनिर्णयात्मक या काल्पनिक ज्ञान क्योंकि प्रमाण तो 588 सहोपलभ्यनियमादभेदो नीलतद्वियोः । उद्घृत बौद्ध - प्रमाण - मीमांसा की जैन- दृष्टि से समीक्षा पृ. 356 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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