Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 392
________________ 390 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा जाए, तो वह सर्वथा अनुपयोगी एवं अव्यवहार्य है तथा जैनसम्मत सविकल्प-प्रत्यक्ष उपयोगी एवं व्यवहार्य प्रतीत होता है। बौद्धदर्शनसम्मत प्रत्यक्ष इसलिए अव्यवहार्य एवं काल्पनिक सिद्ध होता है, क्योंकि उसका विषय स्थूल एवं स्थिर दृष्टिगोचर होने वाले पदार्थ नहीं, अपित निरंतर गतिशील एवं सूक्ष्म व असाधारण स्वलक्षण परमाणु हैं, जिनका किसी भी पुरुष को प्रत्यक्ष होता हुआ दिखाई नहीं देता है। इस प्रकार, हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि निर्विकल्प-प्रत्यक्ष, जिसे जैनों ने दर्शन कहा है, वह निश्चय ही प्रमाण-ज्ञान का पूर्वतत्त्व है और उसके बिना सविकल्प और व्यवसायात्मक-प्रत्यक्ष संभव भी नहीं होता है, फिर भी यदि, निश्चयात्मक-ज्ञान ही प्रमाण है- ऐसा माना जाए, तो फिर हमें निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को अव्यवहार्य या अप्रमाणरूप मानना ही होगा, क्योंकि प्रमाण निश्चयात्मक होता है और ऐसा निश्चयात्मक-निर्णय सविकल्प या विशेष ज्ञान के द्वारा ही संभव है। रत्नाकरावतारिका में बौद्ध-दर्शन की समीक्षा नामक प्रस्तुत शोधग्रन्थ के अष्टम अध्याय में सर्वप्रथम यह बताया गया है कि प्रमाण की संख्या को लेकर जैन-दर्शन और बौद्ध-दर्शन में मतभेद हैं। जहाँ बौद्ध-दर्शन, प्रत्यक्ष और अनुमान- ऐसे दो प्रमाण मानता है, वहीं जैन-दर्शन प्रारम्भिक-काल में, प्रत्यक्ष और परोक्ष- ऐसे दो प्रमाण ही मानता है, किन्तु परवर्तीकाल में प्रमाणों की संख्या छह मानी गई है- 1. प्रत्यक्ष 2. स्मृति 3. प्रत्यभिज्ञा 4. तर्क 5. अनुमान और 6. आगम (शब्द)। इसी प्रकार, बौद्ध दर्शन में जैनों द्वारा स्वीकृत स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क और आगम (शब्द) को प्रमाणरूप नहीं माना गया है। प्रस्तुत अध्याय में हमने इस बात को विस्तार से जानने का प्रयत्न किया है कि बौद्ध-दार्शनिक क्यों स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को प्रमाणरूप में स्वीकार नहीं करते हैं ? हमारी दृष्टि में इसका स्पष्ट कारण तो बौद्ध-दर्शन की तत्त्व-मीमांसा ही है। बौद्ध-दार्शनिक अपनी ज्ञान-मीमांसा को अपनी तत्त्व-मीमांसा के आधार पर ही उपस्थित करते हैं। जब उनके अनुसार, सत्ता क्षणिक ही है, तो ऐसी स्थिति में स्मृति और प्रत्यभिज्ञा कैसे प्रमाण हो सकते हैं ? जिसकी सत्ता एक क्षण से अधिक नहीं है, उसकी स्मृति कैसे प्रमाणरूप हो सकती है ? इसी प्रकार, प्रत्यभिज्ञा-प्रमाण में 'यह वही है- ऐसा जो बोध होता है, वह तभी संभव हो सकता है, जब सत्ता में किसी रूप में स्थायित्व पोहाना जाए। जो उत्पन्न होते ही विनष्ट हो गया, "वह वही कैसे हो सकता है ? वह तो अन्य ही होगा, अतः, स्मृति और प्रत्यभिज्ञा- ये दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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