Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 383
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 381 भारतीय-दार्शनिक- चिन्तन में लगभग पाँचवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी का काल मुख्य रूप से परस्पर खंडन-मंडन का ही रहा है। यद्यपि इस काल में हरिभद्र जैसे कुछ ऐसे दार्शनिक भी हुए हैं, जिन्होंने इस खंडन-मंडन में भी समन्वयात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ रत्नाकरावतारिका में समन्वय की अपेक्षा समीक्षा ही मुख्य लक्ष्य रहा है, अतः, रत्नप्रभसूरि ने बौद्ध-अवधारणाओं की समीक्षा को ही अपना लक्ष्य बनाया था। रत्नप्रभसूरि की रत्नाकरावतारिका लगभग बारहवीं शती की रचना होने के कारण इसमें, बौद्ध-दर्शन का भारत में गगरहवीं-बारहवीं शताब्दी तक जो भी विकास हुआ था, उसी को आधार बनाया गया है और इस दृष्टि से प्रस्तुत ग्रन्थ में वसुबन्धु, दिङ्नाग आदि की अपेक्षा धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अर्चट् आदि के मतों को ही विशेष रूप से उल्लेखित किया गया प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में हमने जैन-प्रमाणशास्त्र की विकास-यात्रा को निर्देशित करते हुए जैन-दर्शन के विकास के चार युगों का विशेष रूप से उल्लेख किया है- 1. आगम-युग, 2. अनेकान्तस्थापना-युग या दर्शन-युग 3. न्याययुग और 4. नव्यन्याय-युग। यद्यपि इस अध्याय में हमें अपने अध्ययन के दौरान यह ज्ञात हुआ है कि बौद्ध-दर्शन के निर्देश और समीक्षा तो आगम-युग से ही प्रारंभ हो जाती है, किन्तु आगम-युग में प्रारंभिक बौद्ध-दर्शन के संदर्भ, यथा- क्षणिकवाद, पंचस्कन्धवाद, सन्तानवाद आदि सिद्धान्तों के ही निर्देश हैं। पुनः, आगमों में इनकी कोई गहन समीक्षा भी हमें नहीं मिलती है। मात्र, ये सिद्धान्त उचित नहीं हैं- ऐसा कहकर ही उनको अस्वीकृत कर दिया गया है। उसके पश्चात्, जब हम अनेकान्तस्थापनयुग या दर्शनयुग में आते हैं तो उस काल के ग्रन्थों में यद्यपि बौद्ध-दर्शन को एकान्त-क्षणिकवादी, अनात्मवादी आदि मानकर ही उसकी समीक्षा करते हुए अनेकान्त की दृष्टि से उन्हें कैसे सुसंगत बनाया जा सकता है, उसकी चर्चा की है। आचार्य सिद्धसेन, समन्तभद्र, हरिभद्र आदि ने बौद्ध-दर्शन के इन सिद्धान्तों को एकान्तवादी मानकर, अनेकान्त की दृष्टि से उन्हें किस प्रकार सुसंगत बनाया जा सकता है, उसकी चर्चा की है। उदाहरण के रूप में, आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से बौद्ध-दर्शन के क्षणिकवाद का स्थान स्वीकार करते हुए भी उसे ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा उचित कहा है। इसी प्रकार, आचार्य हरिभद्र ने बौद्ध-दर्शन के क्षणिकवाद, अनात्मवाद आदि की शास्त्रवार्ता-समुच्चय में समीक्षा करते हुए उसे तृष्णा के उच्छेद का उचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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