Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 384
________________ 382 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा मार्ग बताया है। अनेकान्तस्थापनयुग या दर्शनयुग के ग्रन्थों में बौद्ध-दर्शन के सर्वास्तिवादी, विज्ञानवादी, शून्यवादी आदि मतों का निर्देश तो हुआ है और क्वचित रूप से उनकी समीक्षा की गई, फिर भी उन समीक्षाओं में दार्शनिक-गहराई अपेक्षाकृत कम प्रतीत होती है। वस्तुतः, गहन दार्शनिक-समीक्षाएं तर्कयुग या न्याययुग का ही कार्य रहा है। इस काल में पूर्वपक्ष को समीक्षा की दृष्टि से ही स्थापित करके उसका खंडन किया गया है। वस्तुतः, यह कार्य उस युग की भारत की सभी दार्शनिक-परंपराओं ने समीक्षात्मक-ग्रन्थों को लिखकर किया है। हमारा समीक्ष्य-ग्रन्थ रत्नाकरावतारिका भी इसी का ग्रन्थ है और इसीलिए इसमें बौद्ध-दर्शन की विभिन्न मान्यताओं की उनके पूर्वपक्ष को स्थापित करते हुए गहराई से समीक्षा की गई है। प्रस्तुत अध्याय में बौद्ध-दर्शन की समीक्षा के विकास-क्रम को स्पष्ट करते हुए यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि सिद्धसेन के न्यायावतार में तथा कुछ द्वात्रिंशिकाओं में, मल्लवादिकृत द्वादशारनयचक्र में, तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनंदी, सिद्धसेनगणि, अकलंक, विद्यानंदी आदि की टीकाओं में, समन्तभद्र की आप्तमीमांसा, हरिभद्र के अनेकान्त-जयपताका, षड्दर्शन-समुच्चय, अकलंक के लघीयस्त्रय-न्यायविनिश्चय, विद्यानंदी की अष्टसहस्री, पात्रकेसरी के त्रिलक्षणकदर्थ, वादिराजसूरि के न्यायविनिश्चय-निर्णय, प्रभाचंद के प्रमेयकमल-मार्तण्ड, हेमचंद्र की प्रमाणमीमांसा एवं अन्ययोगव्यवच्छेदिका, मल्लिषेण की स्याद्वादमंजरी नामक टीका और गणरत्न की षड्दर्शनसमुच्चय की टीका आदि में बौद्ध-दर्शन की समीक्षा किस रूप में प्रस्तुत है, इसका संक्षिप्त उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि आगमयुग से लेकर तर्कयुग तक जैन-दार्शनिक किस प्रकार बौद्ध-दर्शन की समीक्षा करते रहे हैं। प्रस्तुत कृति के द्वितीय अध्याय में हमने रत्नप्रभकृत रत्नाकरावतारिका और उसके कर्ता का परिचय दिया है। इस अध्याय में हमने सर्वप्रथम यह बताने का प्रयास किया है कि जैन-न्याय के ग्रन्थों में रत्नाकरावतारिका का क्या स्थान है। संक्षेप में यदि हम कहें, तो दिगम्बर-परम्परा में प्रमेयकमल-मार्तण्ड और श्वेताम्बर-परम्परा में स्याद्वादरत्नाकर को छोड़कर जैन-न्याय की जो भी श्रेष्ठतम कृतियाँ निर्मित हुई हैं, उनमें रत्नाकरावतारिका को सर्वोपरि कहा जा सकता है। इसी क्रम में, प्रस्तुत अध्याय में हमने रत्नाकरावतारिका के कर्ता रत्नप्रभसूरि, उनकी गुरु-परम्परा और उनके काल का निर्धारण करने का प्रयत्न किया है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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