Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 368
________________ 366 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा संदिग्धोभय व्यतिरेक नामक अनुमान के छठवें उदाहरण में तपन-बन्धु बुद्ध के व्यतिरेक-व्याप्ति (वैधय) का उदाहरण निम्न रूप में दिया गया है। वीतरागता इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय न होने के कारण यह सिद्ध नहीं हो सकता है कि बुद्ध रागादि से युक्त हैं या वीतराग हैं ? इसलिए वीतरागता अभावरूप में ही साध्य हो सकती है, अर्थात् उनकी वीतरागता में संदेह बना रहता है। इसी प्रकार, करुणाशील बुद्ध ने जीवों पर करुणा करके स्वयं के शरीर के मांस के टुकड़ों को समर्पित किया था, या नहीं ? यह बताने वाले किसी भी प्रमाण का अभाव होने से इस कथन की प्रामाणिकता को नहीं माना जा सकता, इसलिए 'अनर्पित निज मांस पिरित' के अभाव में भी शंका बनी रहती है। इस प्रकार से, साध्याभाव और साधनाभाव की शंका के होने से कुछ भी निर्णय न होने के कारण यह संदिग्धोभय व्यतिरेक नाम का छठवां वैधर्म्य का उदाहरण है। साध्याभास (पक्षाभास) एवं दृष्टान्ताभास के पश्चात् अब ‘हेत्वाभास का वर्णन किया जा रहा है।" हेत्वाभास के सम्बन्ध में जैन-दृष्टिकोण - जैन - ग्रन्थकार जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं- जो हेतु साध्य के बिना नहीं होता है, उसको निश्चितान्यथानुपपत्ति कहते हैं और यही एकमात्र सद्हेतु का यथार्थ लक्षण है; किन्तु जो हेतु निश्चितान्यथानुपपत्ति से विकल (रहित) होगा, वह वस्तुतः अहेतु या मिथ्या हेतु होता है। जब यथार्थ हेतु के स्थान पर मिथ्या हेतु का प्रयोग किया जाता है, तो उसे हेत्वाभास कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जहाँ मिथ्या हेतु, हेतु के समान दिखाई देता है, उसी को हेत्वाभास कहते हैं। यथार्थ हेतु के स्थान पर मिथ्या हेतु का प्रयोग ही हेत्वाभास कहलाता है। हेत्वाभास के सम्बन्ध में बौदों का पूर्वपक्ष -- पुनः, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि लिखते हैं- बौद्धों द्वारा सद्हेतु के मान्य तीन लक्षण हैं- 1. पक्षसत्व 2. सपक्षसत्व और 3. विपक्षअसत्व। नैयायिक इन तीनों लक्षणों के साथ-साथ अबाधित विषयत्व और असत्-प्रतिपक्षऐसे सदहेतु के पाँच लक्षण मानते हैं; किन्तु जैनों के अनुसार, 57° रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि. पृ. 143 11 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 51 572 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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