Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 367
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा असर्वज्ञता और अनाप्तता की व्यावृत्ति को जाना नहीं जा सकता है, इसलिए साध्य-धर्म की व्यावृत्ति शंका का विषय है, इसीलिए यह 'संदिग्ध - साध्य व्यतिरेक' नामक चौथा वैधर्म्य का उदाहरण है। 566 वस्तुतः, देखा जाए तो, 'असिद्ध-साध्य व्यतिरेक' नामक प्रथम वैधर्म्य के उदाहरण में ही इसका भी समावेश हो चुका है। चूंकि बौद्धों द्वारा मान्य 'क्षणिकेकान्तवाद' प्रत्यक्ष प्रमाणादि से खंडित है, इसलिए उस मिथ्या क्षणिकेकान्तवाद को कहने वाले बौद्ध दार्शनिक असर्वज्ञ और अनाप्त हैं, यह बात स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। सिर्फ बुद्ध की सर्वज्ञता और आप्तता का खंडन करने वाले प्रमाणों के हार्द को समझने के लिए शून्यवाद को मानने वाले सर्वथा अल्पज्ञ ऐसे प्रमाता के आश्रय से यहाँ 'संदिग्ध - साध्य व्यतिरेक को चौथा आभास के रूप में समझाया है, अन्यथा इसका समावेश तो प्रथम वैधर्म्य के उदाहरण में ही हो चुका है। 57 वैधर्म्य - अनुमान के पाँचवें उदाहरण में व्यतिरेकव्याप्ति इस प्रकार, से है- 'जो-जो अनादेय - वचन वाला नहीं है, वह वह पुरुष रागादिवाला भी नहीं है, अर्थात् जो-जो पुरुष आदेय - वचन वाला है, वह - वह पुरुष वीतराग है, जैसे कि बुद्ध । इस उदाहरण में, बुद्ध में अनादेय - वचनता का अभाव हो सकता है, परन्तु रागादि के अभावरूप वीतरागता इन्द्रियगोचर ज्ञान से नहीं जानी जा सकती, इसलिए उनमें रागादि के अभावरूप वीतरागता विषय है, इस प्रकार, यह 'संदिग्ध - साधन व्यतिरेक' नामक पाँचवाँ वैधर्म्य का उदाहरण है। 568 365 टीकाकार रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि बुद्ध के क्षणिकेकान्तरूप वचन प्रमाण से बाधित होने से आदेय नहीं हैं, फिर भी उनके दर्शन के अनुरागी व्यक्तियों को बुद्ध की आदेय - वचनता मान्य हो सकती है, परन्तु रागादि अभावरूप वीतरागता तो उसको सिद्ध करने वाले प्रमाण की विकलता के कारण संदेह का विषय ही रहती है, इसलिए यह संदिग्ध - साधन व्यतिरेक का उदाहरण यथार्थ ही है 1589 566 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 142 567 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 142 568 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 143 'रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 143 569 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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