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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा सिद्धि की गई है, जिससे दूसरी व्याख्या भी असत्य सिद्ध हो गई। इस प्रकार से, यह कृतकत्व-हेतु धर्मी (शब्द) के स्वरूप के विपरीत की और धर्मी के विशेष स्वरूप के विरोधी की सिद्धि भी करता है, इस प्रकार, उसके स्वभाव की भी सिद्धि कर देता है, इसलिए यह सद्हेतु भी अहेतु अर्थात् हेत्वाभास बन जाता है, अतः, बौद्धों का यह मानना युक्तिसंगत नहीं है। अनुमान-प्रमाण में धूम-हेतु अग्निरूप यथार्थ साध्य की सिद्धि करने से सद्हेतु है, किन्तु फिर भी धूमहेतु को इस प्रकार, प्रयोग करना कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ पर्वत नहीं होता, अथवा जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ पर्वत का जो पाषाणत्व-रूप विशेष धर्म है, वह नहीं होता, यह उचित नहीं होता है। धूमहेतु से घास की अग्नि की भी सिद्धि होती है, किन्तु पर्वतरूपी पक्ष की सिद्धि नहीं होती, साथ ही पाषाणत्व रूप पक्ष के विशेष-धर्म की भी सिद्धि नहीं होती है। हेतु का ऐसा प्रयोग सदहेतु को भी विरुद्ध हेत्वाभास बना देता है, अतः, बौद्धों की विरुद्ध हेत्वाभास की उपर्युक्त व्याख्या उचित नहीं है।
__ इस प्रसंग में, रत्नप्रभसूरि ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि शब्द अनित्य है, क्योंकि वह कृतक है। यह सद्हेतु होते हुए भी बौद्धों की व्याख्या के अनुसार विरुद्ध-हेत्वाभास का ही एक रूप सिद्ध हो जाता है। चूंकि जो भी कृतक होता है, वह शब्द ही हो- यह आवश्यक नहीं है, अतः, इस प्रसंग में रत्नप्रभसरि का कहना है कि विरुद्ध-हेत्वाभास के संदर्भ में बौद्धों की जो व्याख्या है, वह उचित नहीं है। 85 दृष्टान्ताभास के संदर्भ में बुद्ध की आप्तता की समीक्षा
__रत्नाकरावतारिका के छठवें परिच्छेद के 74, 75 एवं 76 वें सूत्र में जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि लिखते हैं कि बौद्ध-दार्शनिक क्षणिकेकान्तवादी हैं। उनके इस सिद्धान्त से बुद्ध की असर्वज्ञता और अनाप्ततारूप साध्य की सिद्धि संभव है। रत्नप्रभसूरि बौद्धों का पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि जो-जो सर्वज्ञ और आप्त हैं, वे क्षणिक-एकान्तवादी हैं, जैसे- बौद्ध । बौद्धों के इस उदाहरण में साध्य क्षणिक-एकान्तवादिता होने के कारण अक्षणिक-एकान्तवादिता का अभाव निश्चित रूप से रहा हुआ है, किन्तु किसी की सर्वज्ञता और आप्तता इन्द्रिय-ज्ञान का विषय न होने के कारण बुद्ध में भी सर्वज्ञता और आप्तता है या नहीं- यह शंका का विषय है।
564 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 112, 113 565 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 113
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