Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 347
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा तुम शून्य को परमतत्त्व कहते हो, तो भी शून्यरूप परमतत्त्व की सत्ता तो तुमने मान ही ली है, अतः, तुम्हारा शून्यवाद खण्डित हो गया। फलतः, प्रमाण को सवस्तु मानकर शून्यता की सिद्धि संभव नहीं है और प्रमाण असवस्तु हो, तो उससे भी शून्यता की सिद्धि संभव नहीं है। इस प्रकार से, किसी भी स्थिति में तुम्हारा शून्यवाद युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि 'शून्य' तो ज्ञान का विषय ही नहीं बन सकता है। ज्ञान का विषय तो सवस्तु (पदार्थ) ही होती है, असवस्तु किसी की सिद्धि या असिद्धि कर ही नहीं सकती है, अतः, शून्यवाद से न तो शून्यवाद का मण्डन हो सकता है और न किसी अन्य मत का खण्डन हो सकता है 531 आचार्य रत्नप्रभसूरि शून्यवादियों से कहते हैं कि आपने ज्ञान और ज्ञान के विषय (पदार्थ) को 'शून्य' सिद्ध करने में जो भी तर्क प्रस्तुत किए हैं, वे सारे तर्क युक्तिसंगत नहीं हैं। सर्वप्रथम, आपके द्वारा उठाए गए चार प्रश्नों, अर्थात् पदार्थ अणुरूप हैं ? या स्थूलरूप हैं ? या उभयरूप हैं ? या अनुभयरूप हैं ? का उत्तर देते हुए कहते हैं कि पदार्थ न तो अणुरूप हैं, न स्थूलरूप हैं और न अनुभयरूप है, अपितु पदार्थ उभय स्वरूप वाले हैं, अर्थात् पदार्थ अणुरूप भी हैं और स्थूलरूप भी हैं। यदि स्थूल की उत्पत्ति में अणु को ही कारण मानेंगे, तो अणु और स्थूल में अपरिहार्य रूप से कार्य-कारण- भाव नहीं है । पुनः, अणु स्थूल से एकांतरूप से भिन्न भी नहीं है और एकान्तरूप से अभिन्न भी नहीं है। अणु से ही स्थूल की उत्पत्ति होती हो, यह भी कोई आवश्यक नहीं हैं । स्थूल पदार्थ से भी स्थूल की उत्पत्ति हो सकती है, जैसे- मोटे सूत्र - समूह से भी मोटे वस्त्र की उत्पत्ति होती है । पुनः, आत्मा, आकाश आदि को हम (जैन) कार्यरूप में भी स्वीकार नहीं करते हैं। जहाँ अणुओं से कार्योत्पत्ति होती है, वहाँ भी काल, स्वभाव, नियति, कर्म, पुरुषार्थ आदि कारण - सामग्री से उत्पन्न क्रिया द्वारा संयोगरूप से रहे हुए विशिष्ट परमाणुओं से कथंचित्-भिन्न रूप से और कथंचित् - अभिन्न रूप से कार्य उत्पन्न होता है । इस प्रकार, संयोग - रूप से रहे हुए सूक्ष्म परमाणुओं से स्थूल कार्य की उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं है। 532 पुनः, आचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि आपने (शून्यवादी बौद्धों ने) जो यह आपत्ति उठायी थी कि संयोग को कथंचित्-भेदरूप और कथंचित् 531 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 88 532 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 89 345 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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