Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 356
________________ 354 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा की अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, अतः, चित्त या आत्मा अनित्य या क्षणमात्र स्थायी होती है। बौद्धों द्वारा अपने पूर्वपक्ष की स्थापना और रत्नप्रभ द्वारा उसकी समीक्षा - बौद्ध - बौद्ध-दार्शनिक सांख्य-मत की अवधारणा की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि आत्मा को नित्य कैसे माना जा सकता है ? नित्य आत्मा में अनुभवावस्था और स्मरणावस्था- दोनों अवस्थाओं का एक साथ रहना संभव नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों भिन्न-भिन्न अवस्थाएं हैं। अनुभव वर्तमानकाल का विषय है, तो स्मरण भूतकाल का। स्मरण जो होता है, वह भूतकाल में जिन पदार्थों का अनुभव हुआ है, उन भूतकाल के अनुभूत पदार्थों का स्मरण वर्तमानकाल में होता है, जिसको हम स्मरणावस्था कहते हैं। जो अनुभव होता है, वह वर्तमान के पदार्थों का होता है, जिसको हम अनुभवावस्था कहते हैं। जब दोनों अवस्थाओं का ज्ञान भिन्न-भिन्न समय में होता है, तो दोनों अवस्थाओं की चेतना भी तो भिन्न-भिन्न होगी। जिस चित्त (आत्मा) ने अनुभव किया, उसको स्मरण संभव नहीं है और जिस चित्त (आत्मा) ने स्मरण किया, उसको अनुभव संभव नहीं है, अतः, दोनों अवस्थाओं में दो भिन्न-भिन्न चित्त होते हैं। बौद्ध सांख्यों से कहते हैं कि नित्य तो सदा स्थिर और एकरूप रहने वाला होता है, जो बदलता है, वह नित्य नहीं हो सकता है, अतः, आपके द्वारा मान्य नित्य स्थित एकरूप वाली कूटस्थ-आत्मा में परिवर्तन संभव नहीं होगा। अतः, आत्मा अनित्य या परिवर्तनशील है और अनित्य होने के साथ-साथ क्षणिक भी है, ऐसी सतत परिवर्तनशील आत्मा (चेतना) में ही परिवर्तन संभव होता है, अतः, आत्मा स्थिर और सदैव एकरूप, अर्थात् कूटस्थ-नित्य नहीं हो सकती।543 जैन - जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि सर्वप्रथम सांख्य-मत के कूटस्थ-नित्य-आत्मवाद की समीक्षा करने के पश्चात् बौद्ध-मत की समीक्षा करते हुए रत्नाकरावतारिका में लिखते हैं- आप बौद्धों ने एकान्त-अनित्य की सिद्धि में जो हेतु प्रस्तुत किया है, वह सद्हेतु नहीं, अपितु मात्र विरुद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि आप बौद्ध चित्त-सत्ता की एकान्त-अनित्यता की सिद्धि के लिए जिस हेतु का प्रयोग करते हैं, वह हेतु साध्य के अभाव 542 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 100 543 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 102 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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