Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 350
________________ 348 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा पदार्थ स्मृति का विषय होता है, अर्थात् हम अतीत काल के पदार्थों का स्मृति के द्वारा वर्तमानकाल में ज्ञान करते हैं, तो इस स्थिति में ज्ञेय पदार्थ और ज्ञान भिन्न काल में भी होते हैं। इसी प्रकार, केवली आदि को भविष्यत-काल के पदार्थ भी ज्ञान के विषय बनते हैं, वे भी भिन्न काल में होते हैं। इस प्रकार से, शब्द-प्रमाण (आगम), अनुमान-प्रमाण और प्रत्यक्ष-प्रमाण से तीनों काल में रहे हुए पदार्थ हमारे ज्ञान का विषय बनते हैं। ज्ञाता अपने ज्ञान से त्रैकालिक ज्ञेय पदार्थों का ज्ञान करने में समर्थ होता है। पुनः, आगम और अनुमान- दोनों निराकार हैं। शून्यवादियों के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि दर्शन की अपेक्षा वे निराकार हैं, किन्तु ज्ञान की अपेक्षा से वे साकार भी हैं। प्रथमतः, अनुमान और आगम- दोनों ज्ञान के भिन्न-भिन्न रूप हैं, अतः, हमें अतिप्रसंग का दोष भी सम्भव नहीं है। पुनः, ज्ञान को 'अर्थ-ग्रहण–परिणाम' रूप मानने से ज्ञान के विषय का आकार ही ज्ञान है- यह सिद्ध होता है, अतः, ज्ञान साकार है- ऐसा भी हम स्वीकार करते हैं, क्योंकि ज्ञानावरणीय और वीर्यान्तराय-कर्म के क्षयोपशम-विशेष से हम ज्ञेय पदार्थ का एक नियत आकार के रूप में निश्चित ज्ञान करते हैं। शेष आपके द्वारा उठाए गए सारे तर्क हमें अस्वीकार्य हैं, क्योंकि ये निस्सार हैं। वस्तुतः, जैन-दर्शन तो प्रमाण के अतिरिक्त प्रमाता अर्थात् ज्ञाता की और प्रमेय अर्थात् ज्ञान के विषय (पदार्थ) की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है, अतः, शून्यवादियों का यह मत समुचित नहीं है कि ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान शून्यरूप हैं।538 बौद्धों के शून्यवाद की तार्किक-समीक्षा - बौद्ध धर्मदर्शन की विकासयात्रा में बौद्ध धर्म चार सम्प्रदायों में विभाजित हो गया। ये चार सम्प्रदाय क्रमश:- 1. वैभाषिक 2. सौत्रान्तिक 3. विज्ञानवाद और 4. माध्यमिक या शून्यवाद के नाम से जाने जाते हैं। सामान्यतया, इनके मतभेद का आधार बाह्यार्थ की सत्ता को लेकर है। वैभाषिक बाह्यार्थ की सत्ता को स्वीकार करते हुए उसकी अनुभूति को यथार्थ मानते हैं। इसके विपरीत, सौत्रान्तिकों का कहना है कि बाह्यार्थ की सत्ता तो है, किन्तु वह प्रत्यक्ष का विषय न होकर अनुमान का विषय ही है। दूसरे शब्दों में, बाह्यार्थ अनुमेय है। चैतसिक-संवेदनाओं के आधार पर हम उनका अनुमान करते हैं। इसके विपरीत, विज्ञानवादी या योगाचार 538 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 92 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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