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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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शून्यता भी तो आपके अपने मत में घटित नहीं होगी, क्योंकि शून्यता को भी सिद्ध करने के लिए आपको प्रमाण तो देना ही पड़ेगा। बिना प्रमाण के शून्यता की प्रतिपत्ति भी संभव नहीं होगी।15
बौद्ध - इस पर, बौद्ध-दार्शनिक जैन-दार्शनिक की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि हमारा तो यही मंतव्य है कि तर्क को प्रमाण मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमारी अवधारणा यह है कि निम्न पाँच ज्ञानों से ही व्याप्ति-ज्ञान का भी निर्णय हो जाता है- 1. सर्वप्रथम, रसोईघर में भूतल पर धूम आदि के अभाव का ज्ञान 2. दूसरे, उसी रसोईघर में अग्नि के उत्पन्न होने पर अग्नि का ज्ञान (अग्नि की उपलब्धि) 3. तीसरे, उस अग्नि में से उत्पन्न धुएँ का ज्ञान (धूम की उपलब्धि) 4. चौथे, अग्नि के बुझ जाने से अग्नि का अभाव (अग्नि की अनुपलब्धि) और 5. पाँचवें, अग्नि के बुझ जाने से धुएँ का अभाव (धूम की अनुपलब्धि)। इस प्रकार, इन पाँचों ज्ञान में से क्रमशः दूसरा और तीसरा- ये दोनों उपलम्भरूप और शेष तीनों अनुपलम्भरूप- ऐसे कुल पाँच ज्ञानों में से व्याप्ति-ज्ञान हो जाता है, तर्क-प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है।
इन पाँचों में से दूसरा और तीसरा ज्ञान चाक्षुष-प्रत्यक्ष होने से उपलम्भरूप है, अर्थात् प्रत्यक्षरूप है और पहला, चौथा और पाँचवाँ- ये तीनों ज्ञान-अनुपलंभरूप हैं और यह अनुपलंभ (अनुपस्थित) रूप ज्ञान भी प्रत्यक्षरूप है। बिना अग्नि एवं धूम के मात्र भूतल दिखना भी अनुपलभरूप प्रत्यक्ष ज्ञान है, इसलिए शेष तीन अनुपलंभ या अनुपलब्धिरूप ज्ञान भी रसोईघर में अग्नि एवं धूम से रहित भूतल के प्रत्यक्षरूप ही हैं, अतः, प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा भी जब अग्नि होगी, तभी धुआँ होगा और अग्नि के समाप्त होने पर धुआँ भी समाप्त हो जाएगा, अतः, प्रत्यक्ष ज्ञान से ही व्याप्ति-ज्ञान हो जाता है, तर्क को प्रमाणभूत मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं है।
जैन - बौद्ध-दार्शनिक द्वारा तर्क को प्रमाण न मानने पर जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि उपलंभ (विधि) और अनुपलंभ (प्रतिषेध) स्वरूप जो प्रत्यक्ष ज्ञान है, वह तो किसी निश्चित क्षेत्र और निश्चित काल के संबंध में ही उत्पन्न होता है, अर्थात वह भी मात्र रसोईघर को और उसमें भी मात्र वर्तमानकाल को ही विषय कर सकता है और वहाँ धूम
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रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 399
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