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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
को देखा, तत्पश्चात् बाडुलेय को देखा। क्रमशः एक-एक को देखते हुए निगाहें घूमती अर्थात् तिरछी होती जाती हैं, इसलिए यहाँ 'तिर्यक्' शब्द का प्रयोग करके इसको 'तिर्यक् सामान्य' कहा गया है।
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ज्ञातव्य है कि बौद्ध - दार्शनिक सामान्य की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं, वे मात्र विशेष को ही स्वीकार करते हैं। सामान्य तो मात्र अन्य का निषेध करता है, तो यहाँ सर्वप्रथम पूर्वपक्ष के रूप में बौद्ध - दार्शनिक धर्मोत्तर जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि के समक्ष समस्या रखते हैं कि 'यह गाय हैं, यह गाय है - ऐसा अनुगत - आकार (सदृशाकार) का जो बोध होता है, वह बोध 'सामान्य' का बोध नहीं है, अपितु 'अन्य व्यावृत्ति' मात्र ही है। सभी व्यक्तियों में समान रूप से पाया जाने वाला अनुगत-आकार अर्थात् 'सदृशपरिणामात्मक' बोध अन्य की व्यावृत्ति करने से ही होता है । सदृश परिणाम को दर्शाने वाली सामान्य नाम की कोई वस्तु नहीं है, अन्य की व्यावृत्ति करना ही सामान्य है, कारण कि स्वयं की सजातीय से एवं अन्य पदार्थों से व्यावृत्ति करना ही वस्तु का स्वलक्षण है, यथा- किसी विवक्षित गाय का स्वलक्षण बताना ही है, तो सर्वप्रथम विवक्षित गाय से भिन्न समस्त गो-जाति से उसकी व्यावृत्ति करना होगी, अर्थात् भिन्नता बताना होगी, फिर अश्व, महिष, ऊँट आदि पशु-जाति से व्यावृत्ति करना होगी, अर्थात् भिन्नता स्थापित करना होगी, तो ही विवक्षित गाय का स्वलक्षण बनेगा । एक विवक्षित गाय के स्वलक्षण (स्वरूप) में न तो उस गाय की इतर अन्य सजातीय गायों से समानता है, न विजातीय पशु से भिन्नता है । समानता एवं भिन्नता की दृष्टि से विवक्षित गाय के स्वलक्षण में अन्य मात्रा में भी अन्य का मिश्रण नहीं है, इसलिए अल्प की व्यावृत्ति से ही अनुगत - आकार का बोध होने के कारण सामान्य नाम का कोई तत्त्व ही नहीं है और सामान्य नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। दूसरे शब्दों में, सदृशता नाम की कोई वस्तु नहीं है। अन्य की व्यावृत्ति से ही सामान्य (समानता) का बोध होता है। 384
जैन - जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि उपर्युक्त बौद्ध-मत की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि मृग मरीचिका के समान आपका कथन भी भ्रमात्मक है, क्योंकि जब मृग मरीचिका का जल 'भ्रम' है, तो सूर्य की किरणों से चमकती रेती को जल समझकर उसे प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ी हुई
393 'रत्नाकरायतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 693 394 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 693, 694
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