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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
अर्थात् अनित्य ही सिद्ध होने की चर्चा की गई है। इसके प्रत्युत्तर में, बौद्धों द्वारा धर्मों के बदलते रहने पर भी धर्मी-द्रव्य को नहीं बदले जाने की चर्चा करके बौद्धों द्वारा रत्नप्रभ से यह कहे जाने की चर्चा है कि धर्मी-द्रव्य में भेद बताकर आप हम पर एकान्त-अनित्यता का दोष लगाते हो। तत्पश्चात् रत्नप्रभ द्वारा अपने अर्थक्रियाकारित्वरूप स्वभाव की अपेक्षा से धर्मी-द्रव्य अभेदरूप होने से नित्य माने जाने की चर्चा और सहकारी-कारणसाकल्य की उपस्थिति या अनुपस्थिति की अपेक्षा से वह भिन्न-भिन्न होने से कथंचित-भेदरूप वाला होने से, अनित्य भी माने जाने की चर्चा की गई है। इसके प्रत्युत्तर में, बौद्धों द्वारा सहकारी-कारणसाकल्य और सहकारी-कारणवैकल्य- इन दो परस्पर विरुद्ध धर्मों का योग होने से धर्मी को एकान्तनित्य नहीं रह सकने की चर्चा की है, क्योंकि ऐसे में तो धर्मी में भेद माने जाने का प्रसंग उपस्थित होगा। इसके पश्चात्, रत्नप्रभ द्वारा द्रव्य में उत्पाद-व्ययरूप स्वभाव के कारण कथंचित्-अनित्यता और ध्रौव्यता-स्वभाव के कारण कथंचित-नित्यता भी माने जाने की, इस प्रकार, अपेक्षा भेद से कथंचित-नित्यता और कथंचित-अनित्यता में कोई विरोध भी नहीं माने जाने की चर्चा की है। पुनः, रत्नप्रभ द्वारा वस्तु को सअसदात्मक माने जाने की चर्चा की गई है। स्वचतुष्ट्य का सद्भाव और परचतुष्ट्य के अभाव से ही वस्तु-स्वरूप के निश्चित हो जाने की चर्चा की गई है। अतः, रत्नप्रभ द्वारा वस्तु को बौद्धों के समान एकान्त-क्षणिक माने जाने की चर्चा की है, न वेदान्तियों के समान एकान्त-नित्य माने जाने की चर्चा की है, अतः, रत्नप्रभ द्वारा किसी भी द्रव्य को अपनी पर्यायों के रूप में ही उत्पन्न होने की और नष्ट होने की चर्चा की है, किन्तु द्रव्य के रूप में न तो उत्पन्न होने की और न ही नष्ट होने की चर्चा की है। जैनसिद्धांत की समीक्षा में बौद्धों द्वारा भिन्न-भिन्न पर्यायों में जो अन्वय है, उसको भ्रान्त मानकर वास्तविक नहीं माने जाने की चर्चा की है। उनके अनुसार, प्रत्येक पर्याय को एक-दूसरे से भिन्न माने जाने की चर्चा की गई है और यह पर्याय ही द्रव्य है, पर्याय से पृथक द्रव्य को नहीं माने जाने की चर्चा की गई है। बौद्धों द्वारा उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य को परस्पर-विरोधी माने जाने की चर्चा की गई है। इसके प्रत्युत्तर में, रत्नप्रभ द्वारा असत् से किसी भी द्रव्य की उत्पत्ति संभव नहीं तथा बिना उत्पत्ति के विनाश भी संभव नहीं है, ऐसा माना गया है। अतः,, उत्पत्ति के पूर्व, उत्पत्ति के समय तथा नाश में भी द्रव्य को तो वैसे ही
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