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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
पहला विकल्प शब्द और अर्थ के मध्य रहा हुआ वाच्य-वाचक-संबंध एकान्त-नित्य है- ऐसा मानें, तो शब्द और अर्थ को भी नित्य मानना पड़ेगा। यदि उन्हें नित्य मानेंगे, तो किसी भी शब्द का त्रिकाल में एक ही निश्चित अर्थ होगा, जबकि एक अर्थ के भी कई अर्थ होते हैं, साथ ही शब्द और अर्थ में नित्य-संबंध मानने पर किसी शब्द के अर्थ में कभी भी कोई परिवर्तन भी संभव नहीं होगा, जबकि कालक्रम में शब्द के अर्थ में परिवर्तन भी देखा जाता है, जैसे- बुद्ध शब्द का अर्थ पहले ज्ञानी था, बाद में वह अपने अपभ्रंश रूप में बुद्ध अर्थात् अज्ञानी हो गया।
पुनः, यदि उस संबंध को एकांत-अनित्य मानेंगे, तो उनकी क्षणिकता का दोष आ जाएगा। प्रत्येक शब्द का अर्थ प्रतिसमय नष्ट हो जाएगा, अर्थात् शब्द का अर्थ प्रतिसमय बदलता जाएगा, फलतः न तो कोई वाच्य-अर्थ स्थिर रहेगा और न कोई वाचक शब्द ही।"2
शब्द एवं अर्थ से नित्यानित्य रूप में संबद्ध होकर रहने वाले वाच्य-वाचक-संबंध को भी नित्य मानेंगे, तो उसे उनका स्वभाव मानना पड़ेगा, किन्तु यह भी उचित नहीं है, ऐसा पूर्व में बताया जा चुका है। इसी प्रकार, शब्द और अर्थ से एकान्त-भिन्न वाच्य-वाचक-संबंध को नित्य नहीं कह सकते हैं। यदि उसे अनित्य कहें, तो समस्त शब्दों और अर्थों में वाच्य-वाचक-संबंध या तो एक जैसा ही होगा, या प्रत्येक शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध भिन्न-भिन्न होगा।173
यदि यह मानें कि एक ही संबंध अनेक शब्दों तथा अर्थों (वस्तुओं) से सम्बद्ध होता है, तो फिर एक ही शब्द से समस्त पदार्थों के बोध होने का प्रसंग उपस्थित होगा। शब्द और अर्थ से उनका वाच्य-वाचक-संबंध एकाकार होकर रहता है, ऐसा मानें, तो किसी एक शब्द का संबंध सभी पदार्थों के साथ मानना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में घट शब्द से मात्र घट पदार्थ का ही बोध नहीं होगा, परन्तु संसार के समस्त पदार्थों का बोध होगा। यह भी अनुभव से बाधित होने के कारण, समस्त शब्दों और अर्थों में एक ही वाच्य-वाचक-संबंध है- ऐसा भी नहीं कह सकते। यदि प्रत्येक
177 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 19 172 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 19 173 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 19
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