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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा बौद्धों के प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणता के खंडन की समीक्षा -
रत्नाकरावतारिका के तृतीय परिच्छेद में टीकाकार जैनाचार्य श्री रत्नप्रभसूरि प्रत्यभिज्ञा के संबंध में नैयायिक और मीमांसकों के मत का खंडन करने के पश्चात् बौद्धदर्शन का खण्डन करते हुए लिखते हैं -
बौद्धों का पूर्वपक्ष - बौद्ध-दार्शनिक जैनों पर आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि कटा हुआ नख, कटे हुए केश और कटी हुई चोटी के संबंध में यह कहना कि पुनः वह नख, केश या चोटी आ गई के समान ही आप जैनों की यह प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणता भी मिथ्या या भ्रांत है, क्योंकि नख, केश और चोटी एक बार कटने के पश्चात् पुनः कटे हुए नख, केश या चोटी ही उत्पन्न नहीं होते हैं, अपितु नए-नए उत्पन्न होते हैं। व्यवहार में ऐसा बोलते हुए देखा जाता है कि जो नख कटा था, पुनः वही नख उत्पन्न हो गया, जो बाल कटे थे, पुनः वही बाल उत्पन्न हो गए, जो चोटी कटी थी, पुनः वही चोटी उत्पन्न हो गई, जिसको आप जैन संकलनात्मक-ज्ञान बताकर प्रमाणरूप मान रहे हैं।
बौद्ध कहते हैं कि वस्तुतः वह ज्ञान संकलनात्मक-ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि वे जो कट चुके हैं और वे जो नए-नए उत्पन्न हुए हैं, वे दोनों भिन्न-भिन्न हैं। इनके भिन्न-भिन्न होने से आपका यह संकलनात्मक-ज्ञान भ्रान्तिरूप है। इसी प्रकार, अनेक संदों में होने वाली आप जैनों की प्रत्यभिज्ञा भी भ्रांतिरूप होने से प्रत्यभिज्ञा को प्रमाणरूप नहीं माना जा सकता है, अतः, हम बौद्धों की यह अवधारणा है कि संसार के प्रत्येक पदार्थ क्षणमात्रवर्ती हैं, अर्थात् विनश्वर स्वभाव वाले हैं। प्रतिक्षण नष्ट होने वाली वस्तु कट-कट कर पुनः-पुनः वही उत्पन्न नहीं हो सकती। 'यह वही है ऐसा जो आप जैन कथन करते हैं, वह मिथ्या भ्रांति के कारण ही करते हैं।303
यदि यह मान भी लें कि दस वर्ष पहले किसी व्यक्ति को देखा, दस वर्ष पश्चात् पुनः वही व्यक्ति मिला, उसको देखकर आप कहते हैं कि "यह वही है, तो हम बौद्ध आप जैनों से पूछते हैं कि क्या यह वही व्यक्ति है, जिसे दस वर्ष पहले देखा था ? क्या उसमें अंतर नहीं आया ? जब वस्तु का लक्षण ही प्रतिक्षण बदलने का है, तो उस बदलने वाली वस्तु या व्यक्ति की प्रत्यभिज्ञा कैसे हो सकती है ? नदी में किसी ने दस बार
303 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 385, 386
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