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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
अध्याय 7
बौद्धों के निर्विकल्प - प्रत्यक्ष का खण्डन और प्रमाण की निश्चयात्मकता का प्रतिपादन
207
प्रमाण - लक्षण के अन्तर्गत प्रयुक्त 'व्यवसाय' शब्द का विश्लेषण करते हुए कहा गया है तद्व्यवसायस्वभावं समारोप परिपन्थित्वात्.
प्रमाणत्वाद् वा ।। 7।।
262
इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि प्रमाण व्यवसायात्मक ( निश्चयात्मक) होता है, क्योंकि वह समारोप अर्थात् अज्ञान, संशय और विपर्यय का विरोधी होता है। दूसरे शब्दों में, प्रमाण व्यवसायात्मक है, क्योंकि वह प्रमाण है। आचार्य रत्नप्रभसूरि सर्वप्रथम इस सूत्र में प्रयुक्त प्रमाण, व्यवसाय एवं समारोप - इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करते हैं, इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं
1. प्रमाण, अर्थात् प्रामाणिक - ज्ञान ।
2. व्यवसायात्मक, अर्थात् निश्चयात्मक -- ज्ञान ।
3. समारोप - परिपंथी, अर्थात् संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित होकर जो वस्तु जैसी है, उसको उसी रूप में अनध्यवसाय ( अज्ञान) से रहित ज्ञान ।
प्रस्तुत सूत्र में सर्वप्रथम यह स्पष्ट किया गया है कि प्रमाण क्या है? जो ज्ञान समारोप अर्थात् मिथ्यारोपण का विरोधी (परिपंथी) हो, वह प्रमाण है । दूसरे शब्दों में, जो ज्ञान संशय, विपर्यय और यथावस्थित ज्ञान प्रदान कराता है, वह प्रमाण कहलाता है, अथवा जो ज्ञान वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निश्चयात्मक-बोध कराता है, वह प्रमाण कहलाता है। सूत्र के अन्त में आया हुआ 'वा' शब्द संयोजक है। यहाँ प्रमाण के दो लक्षण दिए गए हैं, एक 'व्यवसायी तथा दूसरा 'समारोप - परिपंथी । ये दोनों ही लक्षण
262 देखें – प्रमाणनयतत्त्वालोक, वादीदेवसूरि, पृ. 5
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