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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
का बोध बिना निर्विकल्प - दर्शन के नहीं होता है, किन्तु निर्विकल्प - दर्शन के होते ही पदार्थ अनुभूति का विषय बनता है। ऐसा जब आप (बौद्ध) मानते हैं, तो फिर आप क्षणक्षयी पदार्थ का और स्वर्ग आदि का भी निर्विकल्प - प्रत्यक्ष से विषयोपदर्शन क्यों नहीं मानते हैं ? अर्थात् प्रत्येक विनश्वर - पदार्थ तथा स्वर्ग, मोक्ष आदि का भी हमें निर्विकल्प - बोध होकर विषयोपदर्शकता होना चाहिए। 201
बौद्ध बौद्ध- दार्शनिक कहते हैं कि हमारा निर्विकल्प-दर्शन पदार्थ के अध्यवसाय तक ले जाता है, अर्थात् हमें नीले रंग का निर्विकल्प - प्रत्यक्ष हुआ, हमने उसकी अनुभूति की, उसके पश्चात् हमारी चेतना में उस नीले रंग की एक निश्चित आकृति बनी, यह निश्चित आकृति ही अध्यवसायरूप है। वह नीले रंग का वह निश्चित ज्ञान ही निर्विकल्प - दर्शन को विषयोपदर्शक बनाता है और यही अध्यवसाय है। बिना अध्यवसाय (व्यवसाय) वाला निर्विकल्प - प्रत्यक्ष विषयोपदर्शक नहीं बनता है, किन्तु अध्यवसाययुक्त निर्विकल्प - प्रत्यक्ष विषयोपदर्शक बनता है | 205
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जैन जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों की इस मान्यता की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि यह आपका कथन उचित नहीं है। यह ठीक है कि अध्यवसाय, विकल्प, व्यवसाय- ये सब निर्विकल्प - प्रत्यक्ष (दर्शन) के कारण होते हैं, किन्तु यह सब भिन्न-भिन्न काल में होंगे। आप प्रथम, निर्विकल्प - प्रत्यक्ष (दर्शन) को मानेंगे या अध्यवसाय को ? क्योंकि अध्यवसाय से भिन्न पूर्वकाल में होने के कारण निर्विकल्प - प्रत्यक्ष (दर्शन) पदार्थ का विषयोपदर्शक नहीं बन सकता है, फिर भी यदि आप निर्विकल्प- प्रत्यक्ष (दर्शन) से ही अध्यवसाय वाले पदार्थ को व्यवसायात्मक मानते हैं, तो निर्विकल्प - प्रत्यक्ष पदार्थ का उपदर्शक है या अनुपदर्शक ? यदि आप निर्विकल्प - प्रत्यक्ष (दर्शन) को उपदर्शक मानते हैं, तो वह उपदर्शक व्यवसाय ही आपके निर्विकल्प - प्रत्यक्ष (दर्शन) के विषय में प्रवर्त्तक अर्थात् पदार्थ के प्रति प्रयत्नशील होगा और उस पदार्थ का ज्ञान भी प्राप्त होगा, अर्थात् ज्ञेय पदार्थ स्वयं विषयोपदर्शक बनेगा। इस प्रकार, से तो वह पदार्थ निश्चयात्मक होने से प्रमाण बन जाएगा, तो आपने पदार्थ के ज्ञान को व्यवसायरूप कहकर हमारे व्यवसायात्मक - प्रमाण को ही
284 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 58, 59 285 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 58 59
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