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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
गुण-धर्म रहे हुए हैं। मिट्टी से लेपयुक्त तुंबी डूब भी सकती है तथा बिना लेप वाली तुंबी तैर भी सकती है। यह तो वक्ता के कथन पर निर्भर है कि उसकी विवक्षा क्या है ? अतः, शब्द का पदार्थ के साथ कोई भी संबंध न मानकर शब्द को अप्रमाण मान लेना- यह आपका कथन उचित नहीं है, क्योंकि यदि आप ऐसा ही मानते हैं, तो अनुमेय बने हुए पदार्थ के अपोह (विकल्प) में भी अप्रमाण वाली बात ही सिद्ध होगी, अर्थात् शब्द के अप्रमाण के समान ही अनुमान में भी दोष उत्पन्न होगा। जिस प्रकार 'पर्वतो वह्मिान, प्रमेयत्वात्' अर्थात् पर्वत पर अग्नि है, क्योंकि वह प्रमेय है, ऐसे अनुमान में हेतु के व्यभिचारी होने पर अनुमेय-संबंधी 'अपोह' में भी पदार्थ की प्रतिबद्धता तो होती है। जैसे धूम (हेतु) से वह्नि (अग्नि) का बोध होता है, तो वहाँ पर अनुमेय पदार्थ प्रतिबद्ध होता है, अर्थात् अग्नि की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार प्रमेयत्व हेतु से भी अग्नि प्राप्त हो जाना चाहिए, किन्तु होती नहीं है। वहाँ पर भी हेतु पदार्थ से प्रतिबद्ध होता ही हैं, किन्तु यहाँ हेतु के व्यभिचारी होने से दोष उत्पन्न होगा और एक अनुमान के अप्रमाण होने पर सभी अनुमान अप्रमाण हो जाएंगे। जैसा कि आपने (बौद्ध-दार्शनिक) कहा कि विप्रतारक पुरुष के शब्द का पदार्थ के साथ संबंध (प्रतिबद्धता) न होने पर सारे शब्द अप्रमाण होते हैं, तो ऐसे ही हेतु के साध्य से अप्रतिबद्ध होने से अथवा अतिप्रसंग-दोष होने से सारे अनुमान भी अप्रमाण होंगे।21
बौद्ध - जैन-दर्शन के इस तर्क का खण्डन करते हुए बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि प्रमेयत्व तो हेतु हो नहीं सकता। "पर्वतोवहिमान प्रमेयत्वात' इस अनमान में दिया हुआ प्रमेयत्व हेतु है, यह सही हेत का लक्षण नहीं होने से घटित नहीं होता है। "विपक्षसत्व' साध्याभावरूप विपक्ष में प्रमेयत्व- हेतु के संभव नहीं होने से, अनुमान में किए गए अपोह (विकल्प) का संबंध पदार्थ के साथ कैसे बनेगा? यदि हेतु सही हो, तो ही उससे होने वाले अनुमान में अपोह का पदार्थ के साथ संबंध होता है, किन्तु जो हेतु (व्यक्ति) व्यभिचारादि दोष वाला हो, तो वह हेतु सही हेतु न होने के कारण अनुमेय का अपोह-पदार्थ के साथ संबंध नहीं बनता है, इसलिए जो अनुमान दोषयुक्त हेतु वाला होता है, वही अनुमान अप्रमाण कहलाता है, सभी अनुमान अप्रमाण नहीं होते हैं।
221 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 616, 617 222 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 617
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