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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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मृत्तिका-पिंड-रूप-पर्याय भिन्न होती है, किन्तु वर्तमानकालीन घटरूप-पर्याय अभिन्न भी होती है। धर्मी जो नित्य-पदार्थ है, वह अपने सहकारी-कारणों के साथ मिलकर ही कार्य करता है। ये सहकारी गुण पदार्थ के स्वभावरूप ही होते हैं और पदार्थ का स्वभाव पदार्थ से भिन्न होता हैं, अतः, स्वभाव-धर्म की अपेक्षा से धर्म और धर्मी अभिन्न होते हैं, तो कालक्रम में होने वाले विविध पर्यायों की अपेक्षा से वे कंथचित्-भिन्न और कंथचित्-अभिन्न भी होते हैं। अत:, पदार्थ का गुण और पर्यायों से एकान्त-भिन्नता का नैयायिकों का सिद्धांत समुचित नहीं है। इस तथ्य की सिद्धि रत्नाकरावतारिका के प्रस्तुत पंचम परिच्छेद में की गई है। इसके आगे रत्नप्रभसरि ने अपनी टीका में बौद्धों के गुण और पर्याय के एकान्त-अभिन्नता के सिद्धांत की समीक्षा की है और यह बताया है कि यदि पदार्थ क्षणिक है, तो प्रत्येक काल में चाहे उसकी गुण और पर्याय अभिन्न हो, किन्तु ऐसे क्षणिक पदार्थ में पदार्थ के भिन्न-भिन्न कालों में गुण-धर्म भी भिन्न-भिन्न होंगे और ऐसी स्थिति में पदार्थ में विभिन्न कालों में एकत्व की कल्पना निरर्थक होगी। इसी आधार पर रत्नप्रभसूरि ने आगे बौद्धों के सिद्धांत की समीक्षा की है और यह बताया है कि बौद्धों का यह सिद्धांत समुचित नहीं है। उन्होंने विस्तार से इसकी समीक्षा निम्न रूप से की है।
रत्नाकरावतारिका के पंचम परिच्छेद में विशेष के दो प्रकार की चर्चा में गुण को द्रव्य का सहभावी-धर्म तथा पर्याय को द्रव्य का क्रमभावी धर्म माने जाने की चर्चा की गई है। नैयायिकों की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। प्रस्तुत में हम बौद्ध-मंतव्य की समीक्षा की चर्चा करेंगे। बौद्ध-दार्शनिक द्वारा रत्नप्रभ की मान्यता की समीक्षा में सर्वप्रथम सामान्यतया द्रव्य को सहकारी-कारणों की उपस्थिति में ही कार्य किए जाने की चर्चा की गई है। दूसरे, बौद्धों द्वारा काल-भेद के आधार पर सहकारी-कारणों के सहित और रहित होने से पदार्थ को अनित्य ही माने जाने की चर्चा की गई है। रत्नप्रभ द्वारा अपने सहकारी-कारणों को मजबूती से पकड़े रखने की चर्चा की गई है, क्योंकि यदि पदार्थ अपने सहकारी-कारणों को छोड़ दे, तो स्वभाव-हानि का प्रसंग उपस्थित हो सकता है और स्वभाव का नाश होने पर तो उसके अनित्य होने की चर्चा की गई है, किन्तु जैन द्वारा तो स्वभाव-नाश को नहीं माने जाने की चर्चा की गई है। पुनः, रत्नप्रभ द्वारा धर्मी-द्रव्य में सहकारी-कारणों का संयोग-वियोग मानने पर धर्मी-द्रव्य को एक स्वभाव वाला नहीं रहने की,
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