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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
टीका-ग्रन्थ की रचना की जा रही है। शब्दरूप ग्रन्थ के माध्यम से ही प्रमाण और नय का स्वरूप समझा जा सकता है, अतः, ग्रन्थ का जो प्रयोजन प्रमाण और नय के स्वरूप का निश्चय करना है, वह प्रयोजन सार्थक होने से यह 'शक्य' अनुष्ठान है।"
शंका - यहाँ प्रतिपक्ष यह शंका प्रस्तुत करता है कि जब शास्त्र ही सूत्र एवं अर्थ की व्यवस्था करता है, तो फिर शास्त्र सूत्र एवं अर्थ का करण अर्थात् हेतु होगा, साध्य नहीं, किन्तु ज्ञान को हेतु कैसे कहा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान तो साध्य होता है ?
समाधान - यहाँ हेतु तो मुख्य रूप से ग्रन्थकर्ता आचार्य रत्नप्रभसूरि ही हैं, शास्त्र तो स्वयं अपना कर्ता नहीं हो सकता। दूसरे, औपचारिक रूप से शास्त्र को भी ज्ञान का कर्त्ता तो कह सकते हैं और शास्त्र ग्रन्थकर्ता का ही कार्य है, अतः, उपचार से शास्त्र को भी हेतु या करण (ज्ञान का साधन) माना जा सकता है। इस प्रकार.. 'प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थमिदमुपक्रम्यते- इस सूत्र का मुख्य प्रयोजन तो ग्रन्थ-लेखन के प्रयोजन का ही प्रतिपादन करना है, जिससे इसमें बुद्धिमानों की प्रवृत्ति हो।
इस ग्रन्थ में जो प्रतिपादित विषय हैं, उनका बोध शब्द एवं अर्थ में संबंध होने से हो जाता है। इस प्रकार, इस ग्रन्थ का आदिवाक्यरूप प्रथम सूत्र लेखन के प्रयोजन को इन शब्दों के वाच्यार्थ द्वारा स्पष्ट कर देता है।
यहाँ पर ग्रन्थकार पहली शंका का निराकरण करते हुए लिखते हैं कि "प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थमिदमुपक्रम्यते- इस सूत्र से प्रमाण और नय के स्वरूप के बोध का प्रयोजन स्पष्ट हो जाता है, अर्थात् इन दोनों के ज्ञान की प्राप्तिरूप प्रयोजन की सिद्धि होती है, अतः, प्रमाण और नय का ज्ञान शक्यानुष्ठान है। इस प्रकार, पहली शंका का समाधान हो जाता
दूसरी शंका का निराकरण करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं कि प्रयोजन दो प्रकार का होता है - 1. कर्ता का प्रयोजन और 2. श्रोता का प्रयोजन। इस ग्रन्थ में कर्ता का प्रयोजन तो श्रोता को प्रमाण और नय के
- रत्नाकरावतारिका, भाग 1, रत्नप्रभसूरि, पृ. 14 - रत्नाकरावतारिका, भाग 1, रत्नप्रभसूरि, पृ. 14 33 रत्नाकरावतारिका, भाग 1, रत्नप्रभसूरि, पृ. 15
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