Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 16
________________ सुस्वादु भोजन मिलता था। वहीं एक गाय और बछड़ा भी रहता था। बछड़े की माँ के प्रति हमेशा शिकायत रहती कि यह अपना मालिक भी कैसा है, जो मेमने को इतना बढ़िया भोजन खिलाता है, जबकि यह तो कुछ काम भी नहीं करता। खूब मोटा हो रहा है, एक कोने में पड़ा रहता है, हिलाओ तो हिले भी नहीं, फिर भी हमारा मालिक इसकी कितनी देखभाल करता है। और तुम्हें देखो माँ, तुम इन्हें दूध देती हो, फिर भी ये तुम्हें सूखी घास और सूखा चारा डालते हैं। यह तो अन्याय है माँ । जो कुछ नहीं देता, उसकी इतनी सेवा और जो अपने आँचल का अमृत दे रही है उसे सूखा चारा! माँ ने कहा- बेटे, आज तुम्हें भले ही शिकायत हो रही हो, लेकिन जिसकी मृत्यु निकट आ जाती है उसे ही इतना सुस्वादु भोजन मिलता है। तू रो मत, परेशान भी न हो, किसी प्रकार की चिन्ता भी न कर, क्योंकि तुझे कोई खतरा नहीं है। माँ बेटे को यह बात रोज समझाती लेकिन बात बछड़े के गले ही न उतरती। एक दिन बछड़े ने देखा कि मालिक के घर मेहमान आए हैं। बहुत करीब के संबंधी थे। उसने देखा कि मालिक हाथ में छुरा लेकर बाड़े की ओर आ रहा है। वह मेमने के पास पहुँचा, उसे जमीन पर गिराया और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। बछड़ा काँप उठा। गाय के शरीर से लिपट गया, पूछने लगा- यह क्या हो गया माँ ! इसे तो मार दिया गया, क्या मुझे भी ऐसे ही मार दिया जाएगा। माँ ने कहा- जो आत्म-संयम से जीते हैं, उन्हें कोई खतरा नहीं है। मृत्यु उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। घर आए मेहमान भी उसे विकृत-विचलित नहीं कर सकते। तुम्हें कुछ नहीं होगा, तुम आराम से रहो। तब बछड़े को समझ में आया कि जो व्यक्ति सुस्वादु भोजन के लिए दिन-रात मरता है, भोगों में रत रहता है, वह कर्मों से भारी बना हुआ जीव, मृत्यु के आने पर ठीक ऐसे ही शोक करता है जैसे मेहमान के आने पर मेमना शोक करता है। मेमनों को अतिथियों के स्वागत में काट दिया जाता है। जो मनचाहे गुलछर्रे उड़ाते हैं, एक दिन उन्हीं के गले काटे जाते हैं । सुस्वादु भोगों की आसक्ति हमारे जीवन के सार-सर्वस्व का संहार कर डालती है। आसक्ति ही कारण बनती है मृत्यु का, पश्चाताप का। आत्म-संयम सदा सुखावह है। सम्यक्-सात्विक भोजन, पवित्र-शान्त मन सदा सुखावह रहता है। कहीं ऐसा न हो कि जीभ का स्वाद और रूप की मोहकता में हम अपनी कोई बड़ी हानि कर बैठे। ___भगवान कहते हैं, भोगों में रत और कर्मों से भारी बना हुआ जीव....।' मनुष्य तो चौबीसों घण्टे भोगों में रत रहता है। भोग का अर्थ केवल विषय-वासना से न लें, भोजन भी भोग है, वाणी भी भोग है, मिलना भी भोग है और सोना भी भोग है। भोग तो भोग है। हर भोग पूर्ण भोग है। व्यक्ति बात भी करेगा, तो अत्यन्त रसपूर्वक- यह 15 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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