Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 81
________________ निमंत्रण देगा और चित्रमुनि के पास संन्यास और वैराग्य है इसलिए वह अपने बन्धु को यही विरासत सौंपेगा। दो मित्रों के मध्य यह विरोधी निमंत्रण है। एक वैभव देना चाहता है और दूसरा वैराग्य । एक निमंत्रण राग के लिए है, दूसरा वीतरागता के लिए। दोनों में से एक तो परास्त होगा ही, एक निमंत्रण तो अस्वीकार होगा ही, लेकिन यहाँ न तो ब्रह्मदत्त अपने मित्र के निमंत्रण को स्वीकार कर रहा है और न चित्रमुनि ब्रह्मदत्त का आमंत्रण स्वीकार कर रहा है। जिसके पास जो है वह वही देगा। कृष्ण के पास महल हैं, तो महल देंगे और सुदामा के पास चावल के सत्तू हैं, तो वह सत्तू ही देगा। जिसके पास जो है, वही मूल्यवान है। कृष्ण के लिए महलों का मूल्य नहीं है लेकिन सुदामा के लिए सत्तू ही मूल्यवान है। महावीर के पास उनकी अपनी पुत्री प्रियदर्शना जाकर कहे कि भन्ते, आप मुझे विरासत में क्या देंगे, पैतृक सम्पत्ति के रूप में क्या देंगे; तो महावीर उसे पात्र पकड़वाते, उसके केशों का लुंचन करवाते, उसे मुनित्व और संन्यास का महापथ देते, जैसे बुद्ध ने यशोधरा को दिया, अपने पुत्र राहुल को दिया, अपने पिता और परिजनों को दिया। इसीलिए चित्रमुनि ने ब्रह्मदत्त से कहा- वैराग्य लो ताकि तुम मुक्त हो सको। भव-भव में यदि तुम्हें ऐसा ही वैभव उपलब्ध होता रहेगा, तब भी तुम अतृप्त ही मरते रहोगे।इस धरती पर कभी कोई तृप्त हुआ है? अतृप्त-अपूर रहा है मनुष्य का मन! जब ब्रह्मदत्त जैसे चक्रवर्ती, सिकन्दर जैसे विश्व-विजेता भी अतृप्त-अपूर्णप्यासी आत्मा की तरह चले गए, तो हम जो सदा और-और की आकांक्षा करते रहते हैं, कैसे तृप्त होकर जा सकेंगे? सम्राट भी अपने को अतृप्त पाता है और अपने वैभव को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है, तो हम दो-चार खपरेलों के प्रति व्यामोह करके कैसे तप्त हो सकते हैं? न तो जीवन से और न काम-क्रोध से कोई तृप्त हो पाता है। जीवन भर चाहे वह प्रार्थना करे कि हे प्रभो, मुझे उठा लो लेकिन जैसे ही मृत्यु का समय करीब आता है, हर व्यक्ति स्वयं को मौत से बचाने का इन्तज़ाम करने लगता है। यह न समझना कि कोई बूढ़ा हो गया है, तो काम-क्रोध से मुक्त हो गया है। साधन जितने अधिक विस्तार पाते जाएँगे, मनुष्य की तृष्णा और वासना भी उतनी ही बढ़ती जाएगी। सत्तर वर्ष का बूढ़ा जिसकी तीन पत्नियाँ मर चुकी हैं चौथा विवाह समाज के भय से चाहे न करे लेकिन मन तो चल ही रहा है और समाज की अनुमति हो जाए तो अपनी ओर से चौथी-पाँचवी शादी करने को भी तत्पर है। मन कभी तृप्त नहीं होता। शरीर तो बूढ़ा हो जाता है पर मन बूढ़ा नहीं होता, उच्छृखल होता है। मन तो स्वर्ग के नाम पर नर्क ही तलाशता है। मन तो ईमानदारी के बाने में बेईमानी के करतब ढूँढ़ता रहता है। अपने हाथों में फूल दिखाता है लेकिन पहुँचाता हमेशा काँटों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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