________________
जीते है, तब न कोई स्त्री होती है और न कोई पुरुष।न किसी को गले लगाया जाता है और न किसी से परहेज किया जाता है।
परहेज़ उन लोगों के लिए होता है, जिनकी आँखों में यह पहचान बनी हुई है कि यह स्त्री है और यह पुरुष है। अगर स्थूलिभद्र जैसे लोग इस तरह पहचान बनाए रखते तो वह किसी भी स्थिति में 'कोशा वेश्या' के यहाँ बेदाग चातुर्मास, निष्कलुष प्रवास नहीं कर पाते। संभव ही नहीं होता। अध्यात्म और कुछ नहीं है, केवल देह के प्रति रहने वाले भाव से छुटकारा पाना है। अगर देह के प्रति रहने वाला भाव समाप्त हो जाए, तो ये खाऊँ, वो खाऊँ' की रट भी बंद। देह के प्रति भाव गौण हो जाए तो कौन कुरूप और कौन स्वरूप। और जब तक देह का भाव नहीं छूटता, तब तक व्यक्ति तपस्या तो खूब कर लेगा, मगर आहार के प्रति रहने वाली आसक्ति नहीं छूटेगी। आहार छोड़ना या उससे सम्बन्ध रखना महत्त्वपूर्ण नहीं है। मेरी नजर में तो आहार के प्रति रागात्मक और विद्वेषात्मक दोनों भाव समाप्त होना ही वास्तविक त्याग-तपस्या है। व्यक्ति के लिए वही वास्तविक उपवास बन जाता है, जब आहार के प्रति रहने वाली आसक्ति भी छूट जाए। ऐसा नहीं हुआ, तो साल में एक बार संवत्सरी आएगी और क्षमापना भी कर लोगे, मगर बाकी के 364 दिन वही वैरविरोध के रहेंगे।
आदमी के मन में राग समाप्त हो जाए, देहभाव समाप्त हो जाए, चित्त शांत हो जाए तो आदमी रोजाना ही क्षमापना' में ही जीता है। उसे न तो किसी को क्षमा करने की जरूरत पड़ती है और न किसी से क्षमा माँगने की, क्योंकि उसके द्वारा कभी कोई वैर-विरोध ही नहीं। वो अगर कभी गलती करता भी है, तो इतनी सजगतापूर्ण कि उससे उसके कर्मों की निर्जरा हो जाए, वह पार लग जाए, निवृत्त हो जाए। अगर व्यक्ति की आसक्ति के तार ढीले पड़ जाते हैं, तो मकड़ी बाहर आ ही जाती है। अन्यथा जो मकड़ी औरों को फँसाने के लिए जाल बुनती है, जाल बुनते-बुनते आसक्ति के तार इतने रसीले,प्यारे हो जाते हैं कि मकड़ी खुद उन्हीं तारों में उलझकर रह जाती है। अगर आसक्ति के ये तार ढीले होने हैं तो अपने आप ही होंगे। कोई बाहर से नहीं आएगा, इन्हें ढीला करने । हमें किसी ने बाँध नहीं रखा है, व्यक्ति स्वयं ही बँधा हुआ है। व्यक्ति स्वयं ही बँधता है।
अगर तुम स्वयं से मुक्त हो गए तो समझो तुम दुनिया से मुक्त हो गए। पार तुम्ही को लगना है इसलिए लंगर भी तुम्हीं को खोलना होगा। इस काम के लिए कोई बाहर से नहीं आएगा। मैं सिर्फ यह बता सकता हूँ कि यह नाव है जीवन की, यह पतवार है, यह सागर है संसार का, यह लंगर है, लेकिन इस लंगर को खोलना तो तुम्हें ही पड़ेगा।आसक्ति से मुक्त तो तुम्हें खुद ही होना होगा।मूर्छा से तुम्हीं को बाहर आना
1141
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org