Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 106
________________ अब तोड़ चुका हूँ मैं बंधन कैसे विश्वास करूँ तुम पर। तुम मुझे बुलाते हो भीतर, मैं तुम्हें बुलाता हूँ बाहर। देखो तो स्वाद मुक्ति का क्या, कैसा लगता है खुला पवन। तुम रखो स्वर्ण पिंजर अपना, अब मेरा पथ तो मुक्त गगन नभ भू से दुर्ग दूर मुझको प्रासाद दुर्ग से दूर मुझे। पिंजर ले गया दूर उससे भी बनकर निष्ठुर क्रूर मुझे। पंछी अपनी आपबीती बताता है कि क्यों मैं पुनः स्वयं को पिंजरे में नहीं ले जाना चाहता हूँ क्योंकि मैंने देखा कि किसी ने मुझे सोने के पिंजरे में ले जाकर रखा तो मैं दुनिया से कट गया, आकाश और धरती से कट गया। उस स्वर्ण महल में भी मुक्त न रहा, वहाँ भी पिंजरा था, उसमें कैद हो गया। मेरे मुक्ति के गीत, मेरे उन्मुक्त पंख पिंजरे में बंद हो गए। अब मैंने बाहर आकर जान लिया कि मुक्ति ही मेरा पथ है। मैं बार-बार आह्वान करता हूँ मालिक तुम भी इन पिंजरों से बाहर आ जाओ। तुम अपने रेत के घरोंदों से, वस्तुओं के प्रति रहने वाले ममत्व और मूर्छा से बाहर आ सकते हो तो मेरा निमंत्रण है। फिर सबके पास लौट आया अब धरती मेरी, नभ मेरा। रजकण मेरे द्रुम तृण मेरे, पर्वत मेरे सौरभ मेरा। वह सब मेरा जो मुक्ति मधुर वह रहा तुम्हारा जो बंधन। तुम रखो स्वर्ण-पिंजर अपना, अब मेरा पथ तो मुक्त गगन। मैं तो इतना मुक्त हो चुका हूँ कि सारी धरती मेरी है। जहाँ चाहूँ पहुँच जाऊँ। सारा आकाश ही मेरा है। तुम्हें तुम्हारे बंधन मुबारक हों, तुम्हारे स्वर्ण-पिंजर अपने ही पास रखो, मेरा पथ तो अब मुक्त आकाश रहेगा। लेकिन यह तभी होगा जब व्यक्ति की दृष्टि में अपना मूल्य अधिक और वस्तु का मूल्य कम होगा। तब ही मालकियत कायम हो सकती है। तब ही हम स्वयं के भी मालिक हो सकते हैं अन्यथा संन्यास भी ले लोगे, साधु भी बन जाओगे, लेकिन तब भी स्वयं को परतन्त्रता-जनित अंकुशों से घिरा पाओगे। यह तो महामार्ग का पथ है तब क्यों न समाज से भी अतीत हो जाओ, संसार से भी अतीत हो जाओ। जब संसार ही त्याज्य है तो बाहर के लगाए गए ये अंकुश भी त्याज्य हो जाएँगे।आज का सूत्र संक्षेप में हमें यही कहता है। मेरे लिए तो आत्म-मुक्ति ही संन्यास का अर्थ है, दीक्षा का अभिप्राय है, प्रव्रज्या की वास्तविकता है। आज का सूत्र है 1105 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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