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पहुँचे और हताशा लेकर वापस आए, कितनी बार तृष्णातुर हुए और पाया कि प्यास अभी बुझी नहीं है।
अनुभव के द्वार से महावीर और बुद्ध भी गुजरे। उन्होंने भी विवाह किया, सन्तान भी हुई, आपने भी विवाह किया, आपके भी सन्तान हुई, मगर उनमें और हममें फ़र्क है। वे अनुभव से गुजरकर जान गए कि सब निरर्थक हैं, व्यर्थ हैं। उन्होंने जाना कि यह मनुष्य की माया है, उसका भ्रम है कि जो मान रहा है यह उसका सुख है लेकिन सुख नहीं है। और हम बार-बार भोगकर भी व्यर्थता के बोध को नहीं जान पाए या जानते हुए भी अनजान हैं।
सम्राट ब्रह्मदत्त जैसे लोग कह रहे हैं कि हम काम-भोग में आसक्त बने हुए जीव जान रहे हैं कि यह गलत है फिर भी उससे विरक्त नहीं हो पा रहे हैं। जानते हैं, विचार भी करते हैं, पर उससे विरक्त नहीं हो पाते। आँखें होते हुए भी अंधे हैं, ज्ञानी होकर अज्ञानी हैं। दुनिया में सोये हुओं को जगाना सरल है लेकिन जगे हुए को जगाना कठिन काम है। जिनके पास आँखें नहीं हैं, वे प्रयत्न भी करेंगे कि उन्हें आँखें मिलें और जिनके पास आँखें हैं फिर भी ठोकर खा रहे हैं, उनके लिए क्या किया जाए?
मैने सुना है: एक व्यक्ति साइकिल पर जा रहा था। बीच चौराहे पर उसने एक व्यक्ति को टक्कर मार दी। दोनों गिर पड़े। जब उठे तब दूसरे व्यक्ति ने साइकिल सवार को पाँच रुपए दिए और कहा धन्यवाद। साइकिल सवार चौंका। उसने कहा यह क्या, मुझसे ही तो टक्कर लगी और तुम उलाहना देने की बजाय धन्यवाद और पाँच रुपए दे रहे हो। उस आदमी ने कहा, दरअसल अंधे को दान देना मेरा कर्तव्य है। मैंने प्रण किया है कि मुझे जो भी अंधा मिलेगा उसे पाँच रुपये दूंगा। अब तुमसे
अधिक अंधा कौन होगा जो आँखें होते हुए भी देख नहीं सकता। तुम्हें दान देना मेरा फ़र्ज़ है। ___मनुष्य के पास आँखें हैं, देखने की क्षमता भी है पर सारा देखना परिधि पर हो रहा है, केन्द्र में कोई नहीं पहुँचता। मेरा आह्वान, मेरा निमंत्रण यही है कि व्यक्ति स्वयं को केन्द्र में लाए। अपने होश को, अपनी सजगता, अपने साक्षीत्व और दृष्टाभाव को ठेठ भीतर अन्तरगुहा में लाए। अपना आन्तरिक केन्द्रीकरण करे। अपने होश को हर-हमेशा अपने हृदय में स्थित रखो। परिधि पर टक्कर लगे या न लगे, भीतर तो टक्कर न लगे। इन बाह्य आँखों को खोलने की ज़रूरत नहीं है, इन आँखों के भीतर जो आँखें हैं उन्हें खोलने की ज़रूरत है। अपने अन्तर्मन की आँखें खोलने की ज़रूरत है।
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