Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 77
________________ समझकर पंडित हो गए हैं। शब्द महज माध्यम हैं, शब्दातीत तक जाओ। शब्द को नहीं, अर्थ को जीओ। निर्वितर्क से निष्कर्ष तक पहुँचो। बुद्धि की खुजलाहट भर से हृदय में नहीं उतर सकते। ज्ञान का बीज अन्तरहृदय में अंकुरित हो, तो ही ज्ञान, जीवन का सच्चा मित्र और सही सहचर साबित हो सकेगा। ___ अपनी अन्तर-आत्मा को पहचानो। अन्तर-गुहा में प्रवेश करो। उस तह तक पहुँचो कि जिससे हमारा क्रोध, कषाय, विकार, अहंकार मिट सके। हमें ज्ञान के वे सारे सूत्र और मार्ग स्वीकार्य हों जो हमारी चेतना को बदल दे। अगर हम ज्ञान को आजीविका का साधन ही मानते फिरेंगे, तो हमारे लिए ज्ञान केवल औरों को देने भर के लिए होगा, जीने के लिए नहीं। तब हमारा रूपक उस कड़छी की तरह होगा, जो हलवे में जाकर भी हलवे से कोरा रहता है। __ वह ज्ञान कैसा ज्ञान जो हमें अज्ञान की पहचान ही नहीं करवाए। वह विचार भी कैसा विचार जो हमारे जीवन में विराग को उत्पन्न न कर दे। वह बोध भी कैसा बोध जो हमारे बंधनों को शिथिल न कर दे। जीवन के रास्तों से सभी लोग गुजरते हैं। बुद्ध और महावीर भी उसी मार्ग से गुजरे थे और हम भी उसी मार्ग से गुजर रहे हैं। सबका जन्म-स्थल माँ की कोख है। उसी माँ की कोख से शंकराचार्य पैदा हुए, उसी से मीरां-मलूक, कृष्ण-कबीर, गुरजिएफ-गोरख, ईसा-ओशो, शांतिनाथ-सुकरात ने जन्म लिया।हम भले ही उन्हें तीर्थकर, महापुरुष या अवतार कह लें, पर धरती पर साकार होने के लिए सिवा माँ की कोख के और कोई दूसरा मार्ग नहीं है। सभी जन्म लेते हैं, पीड़ाओं को सहते हैं, बाधाओं से गुजरते हैं, मृत्यु की पदचाप सुनते हैं। भले ही वे महात्मा-परमात्मा ही क्यों न हो, कोई भी व्यक्ति यहाँ अपवाद नहीं है। कोई व्यक्ति सोये-सोये जीवन की राहों से गुजरता है और कोई जागकर। सजग जीकर ही जीवन के निष्कर्षों को उपलब्ध किया जाता है। निष्कर्ष ही उपलब्धि है। निष्कर्ष जीवन के सत्यों का निचोड़ है। जो यह उपलब्ध कर लेता है, वही जीवन की पाठशाला में उत्तीर्ण हो पाता है।मूर्च्छित के लिए मुक्ति नहीं है, अमूर्छा ही मुक्ति है। मूर्च्छित व्यक्ति निर्वाण की पाठशाला में असफल-अनुत्तीर्ण होता रहता है। असफल व्यक्ति बार-बार इस संसार में लौटा दिया जाएगा। इसी का नाम पुनर्जन्म है, यही पुनर्जन्म का रहस्य है। जीवन के सही-सम्यक् निष्कर्षों को उपलब्ध कर लेने का नाम ही सम्यक्-ज्ञान है, संबोधि है। संबोधि यानि बोध पा लिया। जब हम अपने जीवन के प्रति जागरूक हो जाते हैं, तब ऐसा संयोग मिल ही जाता है कि कोई महावत दुंदुभी बजा देता है। देरी पार लगने में नहीं, संयोग बैठने भर में देरी है। अध्यात्म के मार्ग में, मुक्ति के मार्ग में, 761 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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