Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 54
________________ प्रतिमान स्थापित करना भी सहज मालूम पड़ता है, संन्यास लेना, दीक्षा ग्रहण करना भी बहुत कठिन नहीं है क्योंकि भावान्तरण हुआ और वेश परिवर्तन कर लिया, लेकिन सच्चा परिवर्तन स्वभाव के परिवर्तन से होता है। और स्वभाव को बदलना सबसे दुष्कर कार्य है। मेरी प्रेरणाएँ स्वभाव को बदलने के साथ जुड़ी हैं। मेरे संदेश चित्त के परिवर्तन के साथ जुड़े हैं। अगर हम अपने स्वभाव के प्रति आत्म-बोध, साक्षी-भाव जाग्रत करते हैं, तो स्वभाव स्वयं ही परिवर्तित होने लगता है। ___ मन का परिवर्तन ही सबसे बड़ा परिवर्तन है। स्वभाव की गलत आदतें, गलत प्रक्रियाओं के हटते ही तुम महिमावान् बन जाओगे। आपको पता है सर्प योनि में उत्पन्न चंडकौशिक दंश मार रहा है, फुफकार रहा है, ज़हर उगल रहा है, पर महावीर ने उस सर्प को कुछ नहीं किया, केवल उसकी चेतना में रूपान्तरण की वह क्रान्ति घटित की कि चण्डकौशिक संत कौशिक हो गया। उसका जीवन परमशान्त व पवित्र हो गया। जिसका मन,स्वभाव शांत और निर्मल हो गया, वह संसार में रहकर भी संत ही है, गृहस्थ-संत है, परिवार के मध्य संत की आभा है। कहते हैं: एक संत गंगा में स्नान कर रहे थे। एक दो डुबकी लगाई ही थी कि देखा पानी में बहता हुआ बिच्छू आ रहा है। अपने स्वभावगत करुणा से उस बिच्छू को पानी से बाहर निकालने के लिए हथेली पर उठा लिया। बिच्छू ने हथेली का स्पर्श पाते ही डंक मार दिया। हथेली से छिटककर बिच्छू पानी में जा गिरा। हाथ जलने लगा मगर फिर करुणा आई और डूबते बिच्छू को पुनः उठा लिया। अभी किनारे के पास पहँचे ही थे कि बिच्छु ने फिर डंक मार दिया और बिच्छू हाथ से पुनः छिटक गया। संत ने तीसरी बार, चौथी बार, पाँचवीं बार बिच्छू को निकालने का प्रयास किया।किनारे पर एक राहगीर खड़ा था, उसने कहा- संत, तुमने पाँच बार बिच्छू को उठाया, उसे किनारे पहुँचाना चाहा। तुम जानते हो यह बिच्छू है; डंक मारना इसका स्वभाव है, फिर इसे छोड़ क्यों नहीं देते। संत ने कहा- तुम ठीक कहते हो। जो बात तुम कहते हो, वही मैंने भी सोची कि जब यह बार-बार डंक मार रहा है, तो इसे छोड़ क्यूँ न दूँ। फिर लगा जब बिच्छू अपना स्वभाव छोड़ने को तैयार नहीं है तो मैं संत होकर अपने स्वभाव को छोड़ने के लिए कैसे तैयार होऊँ। जब बिच्छु अपने स्वभाव पर अडिग है, तो क्या मैं अपने स्वभाव पर अडिग न रहूँ? पाँच या दस बार ही नहीं, मैं तब तक हाथ आगे बढ़ाता रहूँगा जब तक ऐसा करने की मुझमें शक्ति रहेगी। हम जानें कि बिच्छू का स्वभाव डंक मारना है, संत का स्वभाव सहन करना है। मैं आप सभी से पूछना चाहता हूँ कि आपका स्वभाव क्या कहता है? आपकी आत्मा क्या कहती है कि हम बिच्छू की तरह डंक मारें या संत की तरह औरों को बचाएँ। इस प्रश्न को भीतर तक उतरने दो कि हम मनुष्य होकर सर्प और बिच्छू के स्वभाव में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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