Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 55
________________ आएँ या परिवर्तन के द्वार से संत-स्वभाव स्वीकार करें। यह प्रश्न ही जीवन का उत्तर बन जाएगा। और ऐसा कुछ होता है तो हरिकेशबल द्वारा दिया गया यह जवाब आपके भी कुछ काम का होगा। सूत्र है धम्मे हरए बम्भे संति तित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेसे। जहिंसि हाओ विमलो विसुद्धो, सुसीइभूओ पजहामि दोसं।। जब हरिकेशबल से पूछा गया कि भन्ते! आप किस सरोवर में स्नान करते हैं, आपका सरोवर कौनसा है, आपका शान्ति-तीर्थ कौनसा है, जिसकी आप यात्रा करते हैं। वह गंगाजल कौनसा है, जिसमें नहाकर आप विमल व विशुद्ध होते है।जवाब में हरिकेशबल ने कहा- आत्मभाव की प्रसन्नता रूप अकलुष लेश्या वाला धर्म मेरा हृद है, सरोवर है, अन्तर्ब्रह्म शान्ति-तीर्थ है जहाँ स्नान कर मैं विमल, विशुद्ध और शान्त होकर अपने कर्म-रज और मन-की-मलिनता को दूर करता हूँ। सूत्र कहता है कि प्रसन्नता ही मेरा सरोवर है और भीतर का ब्रह्म, भीतर की आत्मा ही मेरा शान्ति-तीर्थ है। अपने भीतर के सरोवर में स्नान करके ही अपने जन्म-जन्मान्तरों की मलिनता को, चित्त की विकृतियों को और मन के मालिन्य को धोता हूँ। __ इतनी गहराई भरा सूत्र...बहुत आनन्द देता है। प्रसन्नता, हर क्षण की प्रसन्नता ही तो वह सरोवर है जिसमें स्नान कर व्यक्ति विमल और विशुद्ध बनता है। यही तो प्रयास है कि सारी मानवता को हम अपनी ओर से प्रसन्नता और प्रमुदितता का प्रसाद दे सकें। धरती पर मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो हँस सकता है, फूलों की तरह खिल सकता है, मुस्कुरा सकता है, प्रमुदित हो सकता है। प्रसन्नता से भरे हुए होने पर हर जगह आनन्द और खुशी दिखाई देती है। विषाद की अवस्था में हर वस्तु विषादमयी नज़र आती है। प्रफुल्ल हृदय से बगीचे में जाने पर फूल, पौधे भी विहँसते दिखाई पड़ते हैं और दुखी मन से, विपन्न और दरिद्र हृदय से बगीचे में जाने पर फूल भी मुरझाये हुए दिखाई देंगे। प्रसन्न हृदय व्यक्ति को तो पूरी धरती ही स्वर्ग दिखाई देती है और विक्षिप्त और उद्वेलित व्यक्ति को धरती से बढ़कर नरक, धरती से बढ़कर निगोद दूसरा नज़र नहीं आता। धरती का स्वर्ग और नरक होना हमारी दृष्टि पर निर्भर है। आप किसी को धन-सम्पत्ति देकर नहीं, अपनी मधुर-मुस्कान से अपना बना सकते हैं। आपकी प्रसन्नता का आभामंडल उस व्यक्ति को बार-बार आपकी ओर लाएगा। प्रसन्नता तो उस चंदन की तरह है, जो तिलक लगाए जाने पर सामने वाले के सिर को शोभित करता है और वह अंगूठा भी सुरभित हो जाता है, जिससे तिलक लगाया गया है। उसकी सुरभि, केवल उसे ही 541 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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