Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 72
________________ ओह ! माया की गाँठे कितनी मजबूत हैं कि आदमी जानते-बूझते हुए भी गाँठों के बाहर झॉक नहीं पा रहा है। जब आर्द्रकुमार नाम का व्यक्ति संन्यास लेने के लिए आतुर होता है तो वह संकल्प कर ही लेता है, वह संन्यास ले लेगा। अगले दिन उसका बेटा माँ के पास पहुँचता है। वह देखता है कि उसकी माँ चरखे पर सूत कात रही है। तब वह कहता है - माँ, तुम यह झौंपड़पट्टी वाला काम करती हो? __माँ ने कहा- वत्स! कल तुम्हारे पिता संन्यासी हो जाएँगे। उसके बाद आजीविका के लिए सूत ही कातना पड़ेगा। बेटे ने काता हुआ सूत लिया और सोये हुए पिता के पाँवों में बांध दिया। पिता के संकल्प धरे-के-धरे रह गये। पाँवों में पड़े चौदह धागों को देखकर मन में संसार में रहने की अभिलाषा जाग उठी। वे पूरे चौदह साल तक संसार में रहे, तब संन्यास ग्रहण किया। संन्यास लेने के बाद वे जंगल की तरफ चले गये। वन-प्रवेश से पूर्व एक हाथी ने आर्द्रकुमार को देख लिया।वह उनकी तरफ बढ़ा। हाथी पगला उठा। __पागल हाथी आर्द्रकुमार के पास पहँचा। उस हाथी ने संत को प्रणाम किया और जंगल की ओर चला गया। लोगों को आश्चर्य हुआ कि हाथी, जिसने इस संत को देखकर, इन मज़बूत लौह जंजीरों को तोड़ डाला, संत के पास आकर शांत हो गया। वे आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने आर्द्रकुमार से इसकी चर्चा की तो संत ने कहातुम आश्चर्य कर रहे हो कि हाथी ने ये लोहे की जंजीर कैसे तोड़ दी? पर मैं धन्यवाद देता हूँ इस हाथी को, जिसने लोहे की जंजीरों को तोड़ने में दो मिनट लगाये। मैं तो रेशम के धागों को तोड़ने में चौदह साल लगा बैठा। मैं तो अब भी आश्वस्त नहीं हूँ कि उन चौदह धागों को पूरी तरह तोड़ पाया हूँ, क्योंकि इतनी दूर जंगल में रहकर भी मेरे मन में संसार की प्रतिच्छाया उठ रही है। लोहे की जंजीरों को तोड़ना सरल है, जबकि मोहमाया के सूक्ष्म बंधनों को तोड़ना कठिन है। बद्धरेकताओं को पार लगाना कठिन है । होगा कोई विरला, होगी कोई महान् आत्मा, सिद्धत्व की आभा, किसी में कीचड़ से बाहर अंकुरित हो जाने का संकल्प, तभी बंधन टूट सकते हैं। कीचड़ से कमल बाहर आ जाये तभी उसकी सार्थकता है। जब तक कमल की तरह निर्लिप्तता है, हजार समस्याएँ आ जाएँ, हजार त्रासदियों से गुजरना पड़े, मगर कोई भी त्रासदी त्रासदी नहीं है। कमल की पंखुड़ियाँ कीचड़ से पलायन नहीं कर रही हैं, मगर फिर भी उससे ऊपर उससे अलग। संन्यास का भी सीधा-सा अर्थ यही है कि कीचड़ में हैं, मगर कीचड़ से ऊपर । संसार में है, लेकिन फिर भी संसार से बाहर। संसार में रहकर भी संसार का साक्षी बने रहना, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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