Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 60
________________ जाए इसके लिए कोई चिन्तित नहीं है, जागरूक नहीं है। हर व्यक्ति पात्रों से चिपका है, कपड़े और रूप-रूपायों के लिए लड़ रहा है। हमारी आस्थाएँ, हमारे मूल्य बिन पेंदे के पात्रों के समान हैं। दो नावों पर सवार होकर भी हम स्वयं को बचा सकते हैं लेकिन खतरा तो यह है कि नावों में छेद-ही-छेद हैं। तुम डूब ही रहे हो क्योंकि पहले तो दो नावों पर सवार और फिर ऊपर से नावों में छेद! इन छिद्रों को भरने के प्रति कोई चेतना भी नहीं है। धर्म में इतनी कट्टरता, साम्प्रदायिकता, रूढ़िवादिता? धर्म तो आत्मा का स्वभाव है। यह तो निजता से जुड़ा है। जब भी इसे निजता से हटाकर बाह्य रूप दिया जाएगा, यह किसी सम्प्रदाय, मत, पंथ, मजहब का रूप ले लेगा। धर्म को व्यक्ति से जोड़ना चाहिए। जब भी इसे समूह के साथ जोड़ा जाएगा वह सम्प्रदाय बन जाएगा। व्यक्ति की आत्मा होती है। भीड़की कोई आत्मा नहीं होती। भीड़ तो भेड़ के माफ़िक चलती है। व्यक्ति जाग सकता है क्योंकि उसमें चेतना होती है। भीड़ कभी जागी है? वह सिर्फ उत्तेजित होती है और उत्तेजना में ही जीवित रहती है। धर्म के सही स्वरूप को न जानने से ही इतने विभेद हो गए हैं। उस स्वरूप को न जाना जिसका संबंध चित्त की शुद्धता, आत्मा की पवित्रता और भीतर के कषायों की निर्जरा के साथ जुड़ा हुआ है। हमने धर्म को बाहरी रूप-रूपाय में, वेश-भूषा में, क्रिया-काण्ड में ही उलझा दिया है। देखिए कितने भेद हैं। हिन्दू समाज में सनातनी अलग, आर्य समाज अलग, जैनों में श्वेताम्बर-दिगम्बर, मुसलमानों में शिया-सुन्नी, बौद्धों में हीनयान-महायान, ईसाइयों में कैथोलिक-प्रोटेस्टेण्ट । ये अलग-अलग ही नहीं, परस्पर विरोधी भी हैं। __ हमने परमात्मा के विभाजन कर दिए हैं। जिसके हाथ जो आया वही खींच ले गया।किसी ने अंगुली तोड़ी तो किसी ने अंगूठा। जिसके हाथ गर्दन आ गई वह गर्दन ले उड़ा। इन सम्प्रदायों ने धर्म की मूल आत्मा की हत्या ही कर दी। जिसके हाथ जो आया वह उसी का परचम लहरा रहा है। अब हम प्रयास कर रहे हैं कि हमारे देश के विभिन्न सम्प्रदाय एक होने की चेष्टा करें। शायद एक हो भी जाएँ, लेकिन जो धाराएँ बन चुकी हैं वे फिर भी अलग-अलग ही दिखाई देंगी। मैंने एक दफ़ा कहा था सौ वर्ष बाद मकान गिरा देना चाहिए और हज़ार वर्ष बाद 'धर्म' मिटा देना चाहिए। यह इसलिए कि धर्म अपने मूल स्वरूप से विच्छिन्न हो जाता है और एक मत या सम्प्रदाय का रूप ले लेता है। धर्म के अधिकारियों ने धर्म को इतने अलग-अलग रूपों में परोसा है कि व्यक्ति पागल हो जाए; क्या करे, क्या न करे। कोई धर्म कहता है कि सिर मुंडा कर रखो, दूसरा कहता है जटा बढ़ाकर रखो। कोई कहता है चोटी रखो, कोई कहता है 59 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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