Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 69
________________ जा सका। जब सारे ही प्रयास विफल हो गये तो सम्राट को अपने वृद्ध महावत की याद आई। उस महावत की, जिसने बद्धरेक को पोषित-संस्कारित किया था। अपने पुराने साथी बद्धरेक को इस तरह दलदल में फँसे देखकर महावत की आँखें भर आईं। महावत ने सम्राट से कहा- महाराज, आप सभी सैनिकों को हटा दीजिए। मैं बद्धरेक की नस-नस से वाक़िफ़ हूँ। बद्धरेक अभी बाहर आ जायेगा। आप केवल इतना भर कीजिए कि युद्ध के बिगुल बजा दीजिए। ऐसा ही हुआ। बद्धरेक का सोया वीरत्व जाग उठा। उसका आत्म-पौरुष उद्दीप्त हो उठा।वह आत्म-शक्ति को एकत्र कर चिंघाड़ के साथ बाहर आ गया। बद्धरेक तो एक हाथी था। चौपाया जानवर ! भले ही कितना सघन दलदल क्यों न हो, पर अगर हमारी अन्तरात्मा चैतन्य हो जाये, तो वह दलदल से बाहर आ ही जायेगा। यहाँ भी तो जीवन-बोध की भेरियाँ, दुंदुभियाँ, नगाड़े बज रहे हैं, मगर इंसान न जाने माया के किस गहन अंधकार में फँसा है कि चाहकर भी वह बाहर नहीं निकल पाता। एक जानवर का दलदल से बाहर आना सहज लग रहा है, मगर इंसान को अगर दलदल से बाहर लाना हो तो बहुत कठिन है। जानवरों में कम-से-कम इतनी तो समझ है कि वह दलदल में फँसा है, पर इंसान तो जानते हुए भी अनजान बना हुआ है। ___आदमी दलदल में फँसा है- वैर-विरोध के दलदल में, काम-भोग के दलदल में, नामगिरी और दादागिरी के दलदल में। दलदल कई तरह के हैं, कई रूप के हैं। कई तो ऐसे सुहावने हैं कि उन्हें दलदल कहो, तो आदमी काटने को दौड़ता है। अब अगर दलदल लगता भी है तो यही कि कोई दलदल में है, कोई और गलती में है, कोई और कीचड़ में है। खुद को तो आदमी अमृत के सरोवर में ही डूबा हुआ देखता है जबकि औरों को कीचड़ के गड्ढे में। अकबर जैसे लोग तभी तो बीरबल की खिल्ली उड़ाते हैं। अकबर ने बीरबल से कहा- मैंने सपना देखा और सपने में देखा कि मैं तो अमृत के कुएँ में गिरा हुआ हूँ और तुम कीचड़ के कुएँ में गिरे हुए हो। बीरबल ने कहा-सम्राट आपने जो सपना देखा, वह सौ फीसदी सही है, पर जहाँ आपका सपना समाप्त होता है, वहीं मेरा सपना शुरू होता है। सपने में मैंने देखा कि कुएँ से निकलने पर आप मुझे चाट रहे थे और मैं आपको! । __ सभी एक-दूसरे को चाट रहे हैं, चूम रहे हैं। अमृत होकर भी कीचड़ को चाट रहे हैं,खुद में सुख का सागर होते हुए भी किसी के होंठ चूम रहे हैं- यह मानकर कि यही सुख है। देह-भाव इतना हावी हो गया है कि विदेह-भाव मानो हवा हो गया हो। मुझे नहीं पता कि मैं हजारों साल पहले क्या था, लेकिन एक बात तय है कि अगर बद्धरेक एक जानवर होकर भी बाहर आ सकता है तो हम एक बुद्धिमान होकर 681 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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