Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 19
________________ कितनी है सब उस पर निर्भर है। ठोकर खाकर संभल गए तो ठीक है, अन्यथा बारबार ठोकरें खाते रहोगे और गर्त में गिरते रहोगे। बद्ध और संबद्ध तो वही है,जो ठोकर लगने से पहले ही जाग्रत हो जाता है, बुद्धत्व की यही पहचान है। ठोकर किसी और को लगती है, जागता कोई और है, गिरता कोई और है, संभलता कोई और है। तुम गिरकर संभले तो क्या हुआ? दूसरे को गिरता देखकर संभलना ही प्रज्ञाशीलता है, जागरूकता है। मैं चाहूँगा कि आप किंचित भीतर झांकें, अपनी आत्मा में उतरें। भीतर का परमात्मा हमें पुकार रहा है। भले ही आज मन डोल रहा है, उसमें कूड़ा-कर्कट भी हो सकता है लेकिन हम इसे हटा सकते हैं, मन को स्थिर और निर्मल कर सकते हैं। दुनिया को सुधारने का दावा करने वाले को भी, स्वयं का सुधार तो खुद ही करना पड़ता है। ईमानदारी से भीतर झाँकें, देखें क्या स्थिति है। अपने से पलायन मत करो, अपने से मित्रता बनाओ। अपने साथ जीने और स्वयं को समझने का प्रयास करो। भीतर की विक्षिप्तता स्वयं ही समाप्त हो जाएगी। तब हमारे भीतर एक अनूठी शांति का आविर्भाव होगा। एक अलग ही आनन्द, एक अलग ही सौन्दर्य, एक अलग ही अनोखा रस छलक उठेगा। इस रसपान के लिए आपको आमंत्रण है। निमग्न हो जाइए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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