Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 35
________________ देखता हूँ कि लोभी वर्तमान में ही अपने धन पर सर्प बनकर कुंडली लगाकर बैठा है। उसे अपने धन की सुरक्षा करनी है, केवल चौकीदारी। लेकिन यह बात समझने की है कि एकत्रित करने से धन अपना नहीं हो जाता है, धन का उपयोग करो तब ही धन हमारा अपना है। धन साधन है,साध्य नहीं। साधन का जितना अधिक उपयोग होगा, वह उतना ही अधिक सुखकर होगा, लेकिन हमारी प्रवृत्ति तो साधनों को एकत्रित करने की है। पहले तो वह साधन जुटाता है लेकिन बाद में उन साधनों की हिफ़ाज़त में लग जाता है। साधनों की सेवा करने लगता है । वस्तुएँ तो हमारी सेवा के लिए हैं। लेकिन उल्टा हो जाता है। हम मकान बनाते हैं। अपनी पूंजी लगाकर आलीशान घर बनाते हैं, लेकिन मकान से पूछो कि क्या तुम्हारा मालिक घर में रह रहा है? कभी आपने मकानों को बातें करते हुए सुना है? वे भी बातें करते हैं । मकान कहता है, मेरा मालिक मुझमें नहीं रहता, मैं ही उसके घर में रहता हूँ। मालिक जितना मेरे अन्दर रहता है, उससे अधिक मैं उसके भीतर के घर में रहता हूँ। मकान बना हुआ तो बाहर है लेकिन वह मालिक के भीतर रहता है। वह अपने मकान से कहीं दूर चला जाए तब भी उसे मकान की चिन्ता रहेगी। मकान उसके भीतर बसा ही रहता है। हम आभूषण पहनते हैं; लेकिन नहीं! आभूषण ही हमें पहने रहते हैं। वे हम पर हावी हो चुके हैं। उन्होंने हमारा स्वामित्व ले लिया। तुम सोचते हो नौकर अपने स्वामी से बँधा है। मगर नहीं! स्वामी ही नौकर से बंधा है। क्योंकि नौकर के बिना उसका काम ही नहीं चलता। वैभवशाली व्यक्ति से मुझे शिकायत नहीं है। प्रदर्शन के लिए ही सही, वह अपने धन का उपयोग तो कर रहा है। लेकिन लोभी तो धन का उपयोग ही नहीं करता। देशी और विदेशी इन्सान में यही अन्तर है। देशी तो धन जुटाता है और विदेशी धन खर्च करता है। देशी तो पेटी की चिन्ता करता है और विदेशी पेट की चिन्ता रखता है। इतना पैसा इकट्ठा कर क्या करोगे? इसका कुछ उपयोग करो। अनुपयोगी वस्तुओं को घर से बाहर कर दो। अपरिग्रह भाव से उस सामान को बाहर निकाल दो क्योंकि वह तुम्हारे काम नहीं आता। अनावश्यक सामान, धन, वस्तु सभी को बाहर निकालो। परिग्रह बहुत बढ़ा है। जिस तीर्थंकर ने अपरिग्रह का सिद्धान्त दिया, उसी के अनुयायी सर्वाधिक परिग्रही हैं। हमारा अपरिग्रह का सिद्धांत भी कर्म-काण्ड हो गया है। त्याग ऊपर-ऊपर है, प्रदर्शन बन रहा है, लेकिन मन के भीतर तो परिग्रह की वृत्ति बरकरार है। मैं तो मानता हूँ जिस परमात्मा ने हमें जीवन दिया है, वही जीवन भर की 34 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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