Book Title: Banna Hai to Bano Arihant
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 27
________________ आत्मभाव है, वहाँ दुःख नहीं है। और तब नमि तत्काल अपनी शैय्या से उठ गए। न जाने उनमें कहाँ से चेतना आ गई। वे उठे और राजमहल से बाहर जाने लगे। तभी राजपुरोहित पहुँचा। उसने पूछा, भन्ते! आप जा रहे हैं?' राजपुरोहित समझ गया लेकिन यह जानने के लिए कि वास्तव में यह व्यक्ति विरक्त हुआ है या नहीं, त्याग की यह ज्ञान-चेतना स्थिर है या यह कोई क्षणिक उबाल है, उसने ऐसी माया रची कि सारी मिथिला नगरी जलने लगी। राजपुरोहित ने कहा, 'आप जा रहे हैं, और आपकी मिथिला नगरी जल रही है। आपको राजधर्म का पालन करने के बाद ही मुनिधर्म की दीक्षा लेनी चाहिये।' नरेश ने कहा, 'राजपुरोहित! अगर मिथिला नगरी जलती है, तो इसमें मेरा क्या जलता है? जब मैं जल रहा था, तब यह सारी मिथिला नगरी मिलकर मुझे न बचा पाई और आज मैं शांति के मार्ग पर जा रहा हूँ तब कहाँ इस जलती हुई मिथिला के बारे में सोचूँ। मेरी पीड़ा को मिथिला न दूर कर सकी फिर मैं कैसे इसकी पीड़ा दूर कर पाऊँगा? ये कदम जो उठ चुके हैं, आगे ही बढ़ेंगे।अब ये एकाकीपन का आनन्द लेंगे।' नमि का यह वचन वास्तव में भेद-विज्ञान की बुनियाद है। यह तो नगरी जल रही थी, अगर नमि का शरीर भी जल रहा होता, तब भी नमि यही कहते शरीर जलता है, तो इसमें मेरा क्या जलता है। राजपुरोहित ने दूसरी इहलीला रची और कहा, 'सम्पूर्ण मिथिला नगरी दुश्मनों से घिर गई है। सम्राट! आप आगे बढ़कर सेना का नेतृत्व करें और शत्रुओं को परास्त कर अपनी यशोपताका मिथिला पर फहराएँ।' ____ तब ये सूत्र जो अभी मैंने कहे हैं, नमि ने राजपुरोहित से कहे । ये वही सूत्र हैं जो जिनत्व के मार्ग की आधारशिला हैं, इन्हीं सूत्रों से महावीर का मार्ग जिनत्व और अरिहंत का मार्ग कहलाता है। तब कहा गया, जो हजारों-हजार योद्धाओं को जीत लेता है, फिर भी विजेता नहीं बन पाता लेकिन जो स्वयं को, एक अपने को जीत लेता है वही विजेता होता है। जो स्वयं को जीत लेता है, उसकी विजय ही परम-विजय है। राज्य-रक्षा, राज्य-विस्तार, शत्रु और चोर-लुटेरों के दमन की अपेक्षा अन्तर का राज्य, आत्मदमन, आत्मरक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। बाहर की दुनिया को बचा लेने पर भी बाहर की सुरक्षा का क्या अर्थ है अगर अन्तर्जीवन सुरक्षित नहीं है। बाहर के हजारों शत्रुओं को जीत लेने की बजाय आन्तरिक शत्रुओं पर प्राप्त की जाने वाली विजय ही वास्तविक विजय है। यह विजय ही मनुष्य को अरिहंत बनाती है। वही विजय, विजय होती है जिसमें व्यक्ति स्वयं को जीत लेता है, अन्यथा जीवन भर दूसरों को जीतता चला जाए, फिर भी विजय हासिल नहीं कर पाता। अन्ततः परास्त हो जाता है। २०/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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