Book Title: Avashyak Niryukti Part 01
Author(s): Sumanmuni, Damodar Shastri
Publisher: Sohanlal Acharya Jain Granth Prakashan

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Page 283
________________ स aacaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 099999000 33333333 333333333333333333333333333333333333333333333 आवश्यक नियुक्ति के व्याख्याकारों ने इन्हें शरीरगत संस्थान न मान कर, ज्ञान के ce आकार-विशेष ही माना है। दिगम्बरीय शरीरगत-संस्थानों के निरूपण से कुछ साम्य श्वेताम्बरीय , M'स्पर्द्धक' के निरूपण में देखा जा सकता है। अवधिज्ञान की रश्मियों का निर्गमन शरीर के माध्यम से होता है। जैसे जालीदार ढक्कन के छिद्रों से दीपक का प्रकाश बाहर फैलता है, वैसे ही अवधिज्ञान, CR का प्रकाश शरीर के स्पर्द्धकों के माध्यम से बाहर फैलता है (देखें- आगे नियुक्ति-सं. 60-61) / " यहां संस्थान के आकारों के विविध उपमानों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है तप्र- नदी के वेग में बहता हुआ, दूर से लाया हुआ लम्बा और तिकोना काष्ठविशेष अथवा 6 लम्बी और तिकोनी नौका / पल्लक- लाढ़देश में प्रसिद्ध धान भरने का एक पात्रविशेष, जो ऊपर , ce और नीचे की ओर लम्बा, ऊपर कुछ सिकुड़ा हुआ, कोठी के आकार का होता है। पटह- ढोल (एक " c प्रकार का बाजा), झल्लरी-झालर, एक प्रकार का बाजा, जो गोलाकार होता है, इसे ढपली भी . & कहते हैं। ऊर्ध्व-मृदंग- ऊपर को उठा हुआ मृदंग जो नीचे विस्तीर्ण और ऊपर संक्षिप्त होता है। " 8 पुष्पचंगेरी-फूलों की चंगेरी, सूत से गूंथे हुए फूलों की शिखायुक्त चंगेरी। चंगेरी टोकरी या छाबड़ी .. & को भी कहते हैं।यवनालक या कन्याचोलक-विशेषावश्यक भाष्य की गाथा T06 की आ. मलधारीकृत ca शिष्यहिता-टीका में इसके स्वरूप के विषय में थोड़ा-सा संकेत किया गया है। तदनुसार, मरुभूमि में " ca प्रायः कन्या के परिधान के साथ ही सिला गया होता है ताकि परिधान खिसकने नहीं पाता। इसके a ऊपरी भाग को 'सरकञ्चक' कहा जाता है। सम्भवतः ओढ़नी के नीचे यह उभारी गई आकृति वाला, एक 'स्तनावरण' होता है, ताकि अंगिया शरीर से सटी हुई रहती है। नारकों का तप्राकार, भवनपतिदेवों का पल्लकाकार, व्यन्तरदेवों का पटहाकार, ज्योतिष्कदेवों * का झालर के आकार का, सौधर्मकल्प से अच्युतकल्प के देवों का ऊर्ध्वमृदंगाकार, ग्रैवेयक देवों का व पुष्पचंगेरी के आकार का और अनुत्तरौपपातिक देवों का यवनालिका के आकार का अवधिज्ञान होता है है। जैसे स्वयम्भूरणसमुद्र में मत्स्य नाना आकार के होते हैं, वैसे ही तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों में , अवधिज्ञान अनियत संस्थान वाला होता है। यह वलयाकार भी होता है, जबकि स्वयम्भूरमण समुद्र , में वलयाकार मत्स्य नहीं होते। इनमें भी मध्यम अवधिज्ञान के अनेक संस्थान बताए गये हैं- (1) : 6 हय संस्थान, (2) गज संस्थान, (3) पर्वत संस्थान (द्र. आवश्यक चूर्णि)। अवधिज्ञान के आकार का फलितार्थ यह है कि भवनपतियों और वाणव्यन्तरदेवों का # अवधिज्ञान ऊपर की ओर अधिक होता है और वैमानिकों का नीचे की ओर अधिक होता है। " | ज्योतिष्कों और नारकों का तिरछा तथा मनुष्यों और तिर्यञ्चों का विविध प्रकार का होता है। / - 242(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) .

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