________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 -Racecaceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 00000000 अवधिज्ञान औदारिक शरीर के अन्त में यानी किसी एक दिशा से जाना जाता है, वह अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है। अन्तगत अवधि तीन प्रकार का होता है- (1) पुरतः, (2) पृष्ठतः, (3) पार्श्वतः। . प्रस्तुत गाथा में नारक, देव और तीर्थंकरों के मध्यगत अवधिज्ञान का सद्भाव बताया गया / ce है। नारकियों व देवों को तो जन्मजात अवधिज्ञान होता ही है। किन्तु प्रस्तुत गाथा यह भी बताती है, उनका वह ज्ञान सर्वकालस्थायी होता है, बीच में कभी नष्ट नहीं होता, और वह चारों दिशाओं, चारों विदिशाओं, वस्तुतः सभी तरफ से देखता है। इसे और भी स्पष्ट करते हुए व्याख्याकार ने कहा है कि & उनका अवधिज्ञान 'मध्यगत' होता है। अवधिज्ञानी (नारकी आदि) अपने अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र के मध्य में स्थित रहते हैं, यही कारण है कि वे ज्ञानी सभी ओर फैली ज्ञान-रश्मियों से देखते हैं। " & तीर्थंकरों का भी अवधिज्ञान, पूर्वजन्म से साथ आता है, वे जन्म से ही तीन ज्ञान के धारक होते ही हैं, . और वह अवधिज्ञान केवलज्ञान से पूर्व तक रहता ही है। चूंकि केवलज्ञान क्षायिक होता है, और , अवधिज्ञान क्षायोपशमिक होता है। क्षायिक ज्ञान होते ही, क्षायोपशमिक ज्ञान स्वतः विलीन हो जाते ल हैं। अतः तीर्थंकरों का अवधिज्ञान जो सर्वकालस्थायी कहा गया है, उसका अर्थ है- छद्मस्थ (असर्वज्ञ) काल में कभी नष्ट नहीं होता। (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवं देशद्वारावयवार्थमभिधायेदानी क्षेत्रद्वारं विवुवूर्षुराह _ नियुक्तिः) संखिज्जमसंखिज्जो, पुरिसमबाहाइ खित्तओ ओही। संबद्धमसंबद्धो, लोगमलोगे य संबद्धो // 67 // . [संस्कृतच्छायाः-संख्येयः असंख्येयः पुरुष-अबाधया क्षेत्रतोऽवधिः सम्बद्ध असम्बद्धः लौके अलोके च सम्बद्धः॥] ___(वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, देशद्वार के अन्तर्गत अवधि-पदार्थ का निरूपण करने . के बाद, अब क्षेत्र द्वार को स्पष्ट करने हेतु (आगे की गाथा) कह रहे हैं -888888888888888888888888888888888888888888888.. (67) (नियुक्ति-हिन्दी-) क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञान सम्बद्ध और असम्बद्ध (-ये दो प्रकार का होता है। ये दोनों ही (क्षेत्र की दृष्टि से) संख्येय व असंख्येय (योजन प्रमाण) होते , हैं। यह लोक और अलोक में (पुरुष से) सम्बद्ध रहता है। - 268 (r)(r)(r)08ck@necR898809000@R@ne .