Book Title: Avashyak Niryukti Part 01
Author(s): Sumanmuni, Damodar Shastri
Publisher: Sohanlal Acharya Jain Granth Prakashan

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Page 312
________________ RRRRRRRRR - 22222222222222223333333333333333333333333333. नियुक्ति-गाथा-68 . लोक व अलोक से सम्बद्ध -यहां 'लोक' का अर्थ लोकान्त गृहीत है। यहां अवधिज्ञान के ca तीन विकल्प मान्य किये गये हैं- (1) वह लोकप्रमाण अवधिज्ञान पुरुष से भी जुड़ा होता है और 2 & लोकान्त से भी। (2) लोक के एकंदेश में रहने वाला 'अभ्यन्तरावधि', जो पुरुष से तो सम्बद्ध है, . किन्तु लोकान्त से नहीं। (3) बाह्य अवधि, जो न तो लोकान्त से सम्बद्ध होता है और न पुरुष से। चौथा भंग यह है जो मान्य या सम्भव नहीं है- वह पुरुष से सम्बद्ध नहीं है और लोकान्त से सम्बद्ध है। यह असम्भव इसलिए है कि लोकान्त से सम्बद्ध होने वाला नियमतः पुरुष से सम्बद्ध ही होगा। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीं गतिद्वारावयवार्थप्रतिपिपादयिषयाह (नियुक्तिः) गइनेरइयाईया, हिट्ठा जह वण्णिया तहेव इहं। इही एसा वण्णिज्जइत्ति तो सेसियाओऽवि // 68 // [संस्कृतच्छायाः- गति-नैरयिकादिका अघस्ताद् यथा वर्णितास्तथैवेह।ऋद्धिरेषा वर्ण्यते इति ततः / शेषिका अपि॥] . (वृत्ति-हिन्दी-) अब, गति-द्वार के अन्तर्गत अवधिज्ञान का प्रतिपादन करने के , लिए (आगे की गाथा) कह रहे हैं (68) (नियुक्ति-हिन्दी-) नैरयिक गति आदि (द्वारों) का जिस प्रकार पहले (मति, श्रुत - निरूपण के प्रसंग में) निरूपण किया गया था, उसी प्रकार यहां (अवधिज्ञान में) भी करणीय है। इन 'अवधि' ज्ञान को ऋद्धि (भी) कहा जाता है, इसलिए उसका तथा शेष (अन्याय) ऋद्धियों का भी वर्णन किया जा रहा है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र गत्युपलक्षिताः सर्व एवेन्द्रियादयो द्वारविशेषाः परिगृह्यन्ते।ततश्च ये गत्यादयः सत्पदप्ररूपणाविधयः द्रव्यप्रमाणादयश्च, ते यथा अधस्तान्मतिश्रुतयोः 'वर्णिताः' / उपदिष्टाः, तथैवेहापि द्रष्टव्या इति। विशेषस्त्वयम्-इह ये मतिं प्रतिपद्यन्ते तेऽवधिमपि, , किन्त्ववेदकास्तथा अकषायिणोऽप्यवधेः प्रतिपद्यमानका भवन्ति, क्षपकश्रेण्यन्तर्गताः सन्त - 888888888888888888888888888888888888888888888 - (r)(r)(r)(r)(r)(r)cr(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 271 )

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