Book Title: Avashyak Niryukti Part 01
Author(s): Sumanmuni, Damodar Shastri
Publisher: Sohanlal Acharya Jain Granth Prakashan

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Page 316
________________ -RRRRRRRRE 000000000 232232323333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-69-70 | व लब्धिधारक में अभेद मानकर कथन करना चाहिए)। वहां विपुड़ का अर्थ 'उच्चार' (विष्ठा | ce व मूत्र) है, खेल या श्लेष्मा का अर्थ 'कफ' बलगम है, और जल्ल का अर्थ है- मल / भावार्थ . & पूर्ववत् ही है (अर्थात् इनसे किसी की भी व्याधियां शांत हो जाती हैं)। और ये (सभी, विष्ठा, बलगम व शारीरिक मल) सुगन्धित भी होते हैं। तथा जो सभी ओर से सुनती है, वह 'संभिन्नश्रोतृ' लब्धि होती है। या इसका नाम है- 'संभिन्नस्रोतस्' / अर्थात् (लब्धिधारी का) : या इसका नाम है- 'संभिन्नस्रोतस्' / अर्थात् (लब्धिधारी का प्रत्येक) स्रोत यानी इन्द्रियां है सभी विषयों को या परस्पर-सहयोग से ग्रहण करने लगते हैं अर्थात् वह 'सम्भिन्नस्रोता'. व बन जाता है। अथवा जो शब्दों को संभिन्न रूप में सुन सकता है, अर्थात् अनेकानेक बहुत से , a शब्दों में भी प्रत्येक को उसके परस्पर लक्षण से या नाम से विशेष रूप से पहचानते हुए . (जैसे यह घोड़े की आवाज है, यह हाथी की आवाज है, यह अमुक की आवाज है, या इतने : दूर से आ रही है, इतने पास से आ रही है, इत्यादि रूप में) सुन सकता है, वह सम्भिन्न श्रोता है। इस प्रकार, सम्भिन्न-श्रोतृत्व या सम्भिन्नसोतस्त्व एक लब्धि है। ऋजु जो मति , cs यानी सामान्य ग्रहण करने वाली होती है और जो मनःपर्यायज्ञान का ही एक विशेष रूप होती है, वह मनःपर्यायज्ञानविशेष भी, एक विशेष लब्धि ही है। ऋजुमति एक लब्धि है, . किन्तु लब्धिधारक के साथ अभेद मानें तो ऋजुमति साधु (लब्धिधारी) ही है। इसी तरह, , सर्वौषधि, यानी जिसकी सभी विशेष वस्तुएं-विष्ठा, मूत्र, केश, नख आदि, औषधि रूप हो , जाती हैं, दूसरे की व्याधि को दूर करने में साधन बन सकती हैं- वह सर्वौषधि (लब्धिधारी) : होता है। इसी प्रकार उक्त विशेष ऋद्धियों को जानना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 69 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) (द्वितीयगाथाव्याख्या-) अतिशयचरणाच्चारणाः, अतिशयगमनादित्यर्थः। ते च . द्विभेदाः- विद्याचारणा जङ्घाचारणाश्च। तत्र जलाचारणः शक्तितः किल, रुचकवरद्वीपगमनशक्तिमान् भवति। स च किलैकोत्पातेनैव रुचकवरद्वीपं गछति, , आगच्छंश्चोत्पातद्वयेनागच्छति, प्रथमेन नन्दीश्वरं द्वितीयेन यतो गतः। एवमूर्ध्वमपि // * एकोत्पातेनैवाचलेन्द्रमूर्ध्नि स्थितं पाण्डुकवनं गच्छति, आगच्छंश्चोत्पातद्वयेनागच्छति, प्रथमेन " नन्दनवनं द्वितीयेन यतो गतः। - 80Rece@@cr@nece@@Rece@@ 275 -

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