Book Title: Avashyak Niryukti Part 01
Author(s): Sumanmuni, Damodar Shastri
Publisher: Sohanlal Acharya Jain Granth Prakashan

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Page 333
________________ -232323232233333223232323222333332222222222222 -aaaaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 00000mm (2) क्षेत्रतः- लोक के मध्यभाग में अवस्थित आठ रुचक प्रदेशों से छहों दिशाएं और चार a विदिशाएं प्रवृत्त होती हैं। मानुषोत्तर पर्वत, जो कुण्डलाकार है, उसके अन्तर्गत अढ़ाई द्वीप और दो . a समुद्र हैं। उसे समयक्षेत्र भी कहते हैं। इसकी लम्बाई-चौड़ाई 45 लाख योजन की है। मनःपर्यवज्ञानी , * समयक्षेत्र में रहने वाले समनस्क जीवों के मन की पर्यायों को जानता व देखता है। तथा विमला , a दिशा में सूर्य-चन्द्र, ग्रह-नक्षत्रादि में रहने वाले देवों के तथा भद्रशाल वन में रहने वाले संज्ञी जीवों के , मन की पर्यायों को भी प्रत्यक्ष करता है। वह नीचे पुष्कलावती विजय के अन्तर्गत ग्राम नगरों में , रहने वाले संज्ञी मनुष्यों और तिर्यञ्चों के मनोगत भावों को भी भलीभांति जानता है। मन की पर्याय : ही मनःपर्याय ज्ञान का विषय है। (3) कालतः- मनःपर्यवज्ञानी केवल वर्तमान को ही नहीं, अपितु अतीतकाल में पल्योपम , 4 के असंख्यातवें काल पर्यन्त तथा इतना ही भविष्यत्काल को अर्थात् मन की जिन पर्यायों को हुए a पल्योपम का असंख्यातवां भाग हो गया है और जो मन की भविष्यकाल में पर्यायें होंगी, जिनकी , a अवधि पल्योपम के असंख्यातवें भाग की हैं, उतने भूत और भविष्य-काल को वर्तमान काल की तरह भली-भांति जानता व देखता है। (4) भावतः- मनःपर्यवज्ञान का जितना क्षेत्र बताया जा चुका है, उसके अन्तर्गत जो . समनस्क जीव हैं, वे संख्यात ही हो सकते हैं। असंख्यात नहीं। जबकि समनस्क जीव चारों गतियों - में असंख्यात हैं, उन सबके मन की पर्यायों को नहीं जानता। - अब ऋजुमति व विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के परस्पर अन्तर को ध्यान में रखते हुए दोनों ca का द्रव्यादि की दृष्टि से निरूपण किया जा रहा है (1) द्रव्य से- ऋजुमति अनन्त अनन्तप्रदेशिक स्कन्धों को विशेष तथा सामान्य रूप से , जानता व देखता है, और विपुलमति उन्हीं स्कन्धों को कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है। (2) क्षेत्र से- ऋजुमति जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को तथा उत्कर्ष से / नीचे, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन-अधस्तन क्षुल्लक प्रतर को और ऊंचे ज्योतिषचक्र के उपरितल. पर्यन्त और तिरछे लोक में मनुष्य क्षेत्र के अन्दर अढ़ाई द्वीप-समुद्र पर्यंत, पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस " 1 अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तरद्वीपों में वर्तमान संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगत भावों को | - 292 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)

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