Book Title: Avashyak Niryukti Part 01
Author(s): Sumanmuni, Damodar Shastri
Publisher: Sohanlal Acharya Jain Granth Prakashan

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Page 343
________________ -RRORCE CECAR श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9200000 222222233333333333333333333333333333333333333 - | (हरिभद्रीय वृत्तिः) सत्पदप्ररूपणायां च गतिमङ्गीकृत्य सिद्धगतौ मनुष्यगतौ च, इन्द्रियद्वारमधिकृत्य . & नोइन्द्रियातीन्द्रियेषु, एवं त्रसकायाकाययोः, सयोगायोगयोः, अवेदकेषु, अकषायिषु, * शुक्ललेश्यालेश्ययोः, सम्यग्दृष्टिषु, केवलज्ञानिषु, केवलदर्शिषु, संयतनोसंयतयोः, साकरानाकारोपयोगयोः, आहारकानाहारकयोः, भाषकाभाषकयोः, परीत्तनोपरीत्तयोः, पर्याप्तनोपर्याप्तयोः, बादरनोबादरयोः, संज्ञिषु नोसंज्ञिषु, भव्यनोभव्ययोः, मोक्षप्राप्तिं प्रति : ल भवस्थके वलिनो भव्यता, चरमाचरमयोः, चरमः- केवली, अचरमः- सिद्धः भवान्तरप्राप्त्यभावात्, केवलं द्रष्टव्यमिति। पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानयोजना च स्वबुद्धया कर्तव्येति। _ 'द्रव्यप्रमाणं' तु प्रतिपद्यमानानधिकृत्य उत्कृष्टतोऽष्टशतम् / पूर्वप्रतिपन्नाः केवलिनस्तु अनन्ताः। क्षेत्रम्' जघन्यतो लोकस्यासंख्ये यभागः, उत्कृष्ट तो लोक एव, केवलिसमुद्घातमधिकृत्य। एवं स्पर्शनाऽपि। कालतः' साद्यमपर्यन्तम् / अन्तरं' नास्त्येव, ल प्रतिपाताभावात् / भागद्वारं' मतिज्ञानवद् द्रष्टव्यम्। 'भाव' इति क्षायिके भावे। 'अल्पबहुत्वं' & मतिज्ञानवदेव। (वृत्ति-हिन्दी-) सत्पद-प्ररूपणा के अन्तर्गत गति (द्वार) को दृष्टि में रख कर सिद्धगति व मनुष्य-गति में, इन्द्रिय-द्वार के अन्तर्गत नो-इन्द्रिय व अतीन्द्रियों में, इसी प्रकार त्रसकाय व अप्काय, सयोग व अयोग, अवेदक व अकषाय, शुक्ल लेश्या व अलेश्य, सम्यग्दृष्टि, केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, संयत व नोसंयत, साकार उपयोग व अनाकार उपयोग, आहारक व अनाहारक, भाषक व अभाषक, परीत्त व अपरीत्त, पर्याप्त व नोपर्याप्त, बादर व नोबादर, संज्ञी व नोसंज्ञी, भव्य व नोभव्य, चरम व अचरम -इन (सब) में केवलज्ञान का निरूपण समझना चाहिए। यहां भव्य से तात्पर्य है- भवस्थ केवली, जो मोक्ष प्राप्ति के योग्य ल हैं। चरम से तात्पर्य है- केवली, और अचरम से तात्पर्य है- सिद्ध, क्योंकि उन्हें अन्य जन्म " 2 नहीं लेना है। इनमें पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान की योजना अपनी बुद्धि से कर लेनी चाहिए।" द्रव्यप्रमाण- प्रतिपद्यमान केवलियों की दृष्टि से उत्कृष्ट 108 (संख्या) होती है और पूर्वप्रतिपन्न केवली तो अनन्त हैं। क्षेत्र- इनका जघन्य क्षेत्र लोक का असंख्येय भाग होता है 302 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@@ -

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