Book Title: Avashyak Niryukti Part 01
Author(s): Sumanmuni, Damodar Shastri
Publisher: Sohanlal Acharya Jain Granth Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 342
________________ Reacoconcence नियुक्ति-गाथा-18 2222222222222233 2222223333333 पहले क्रमिकवाद की चर्चा करें। भगवती सूत्र (28/8) में ज्ञान को साकार, तथा दर्शन को ce अनाकार मानते हुए इनके एक साथ (युगपत्) होने का निषेध किया गया है। अनावृत आत्मा में ज्ञान सतत प्रवृत्त रहता है और छद्मस्थ को ज्ञान की प्रवृत्ति करनी पड़ती - है। छद्मस्थ को ज्ञान की प्रवृत्ति करने में असंख्य समय लगते हैं और केवली एक समय में ही अपने & ज्ञेय को जान लेते हैं। इस पर से यह प्रश्न उठा कि केवली एक समय में समूचे ज्ञेय को जान लेते हैं , तो दूसरे समय में क्या जानेंगे? वे एक समय में जान सकते हैं, देख नहीं सकते या देख सकते हैं, .. जान नहीं सकते तो उनका सर्वज्ञत्व ही टूट जाएगा! इस प्रश्न के उत्तर में तर्क आगे बढ़ा। दो धाराएं और बन गईं। मल्लवादी ने केवल-ज्ञान से और केवल-दर्शन के युगपत् होने और सिद्धसेन दिवाकर ने उनके अभेद का पक्ष प्रस्तुत किया। दिगम्बर-परम्परा में केवल युगपत्-पक्ष ही मान्य रहा। श्वेताम्बर-परम्परा में इसकी क्रम, , युगपत् और अभेद- ये तीन धाराएं बन गईं। विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के महान् तार्किक यशोविजयजी ने इसका नयदृष्टि से समन्वय : किया है। ऋजु-सूत्र नय की दृष्टि से क्रमिक पक्ष संगत है। यह दृष्टि वर्तमान समय को ग्रहण करती है। यह दृष्टि वर्तमान समय को ग्रहण करती है। पहले समय का ज्ञान कारण है। और दूसरे समय का a दर्शन उसका कार्य है। ज्ञान और दर्शन में कारण और कार्य का क्रम है। व्यवहार-नय भेदस्पर्शी है। 20 & उसकी दृष्टि से युगपत्-पक्ष भी संगत है। संग्रह नय अभेदस्पर्शी है। उसकी दृष्टि से अभेद-पक्ष भी " < संगत है। इन तीनों धाराओं को तर्क-दृष्टि से देखा जाय तो इनमें अभेद-पक्ष ही संगत लगता है। a जानने और देखने का भेद परोक्ष या अपूर्ण ज्ञान की स्थिति में होता है। वहां वस्तु के पर्यायों को , जानते समय उसके सामान्य रूप नहीं जाने जा सकते। प्रत्यक्ष और पूर्ण ज्ञान की दशा में ज्ञेय का , a प्रति समय सर्वथा साक्षात् होता है। इसलिए वहां यह भेद नहीं होना चाहिए। दूसरा भेदपरक दृष्टिकोण आगमिक है। उसका प्रतिपादन स्वभाव-स्पर्शी है। पहले समय में वस्तुगत-भिन्नताओं को जानना और दूसरे समय में भिन्नगत-अभिन्नता को जानना स्वभाव-सिद्ध है। ज्ञान का स्वभाव ही ऐसा है। भेदोन्मुखी ज्ञान सबको जानता है और अभेदोन्मुखी दर्शन सबको देखता है। अभेद में भेद और अभेद में भेद समाया हुआ है, फिर भी भेद-प्रधान ज्ञान और अभेद- 1 ca प्रधान दर्शन का समय एक नहीं होता। (r) (r)ce@ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ 301

Loading...

Page Navigation
1 ... 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350