Book Title: Avashyak Niryukti Part 01
Author(s): Sumanmuni, Damodar Shastri
Publisher: Sohanlal Acharya Jain Granth Prakashan

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Page 310
________________ හ හ ග ග ග ග ග ග ග * acanARRORam नियुक्ति गाथा-67 | (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) तत्र संबद्धश्चासंबद्धश्च अवधिर्भवति।किमुक्तं भवति? -कश्चिद् द्रष्टरि & संबद्धो भवति, प्रदीपप्रभावत्।कश्चिच्च असंबद्धो भवति, विप्रकृष्टतमोव्याकुलदेशप्रदीपदर्शनवत्। & तत्र यस्तावदसंबद्धः असौ संख्येयः असंख्येयो वा।पूर्णः सुखदुःखानामिति पुरुषः, पुरि शयनाद्वा पुरुष इति।पुरुषादबाधा, अबाधनमबाधा अन्तरालमित्यर्थः। पुरुषस्याबाधा पुरुषाबाधा, तया पुरुषाबाधया हेतुभूतया सह वा क्षेत्रतः अवधिर्भवति।अयं भावार्थः- असंबद्धोऽवधिः क्षेत्रतः संख्येयो भवति असंख्येयो वा, योजनापेक्षयेति, एवं संबद्धोऽपिाएवमवधिः स्वतन्त्रः पर्यालोचितः। (वृत्ति-हिन्दी-) अवधिज्ञान सम्बद्ध भी होता है और असम्बद्ध भी। क्या तात्पर्य है? (तात्पर्य यह है कि) कोई तो अवधिज्ञान अपने द्रष्टा (धारक) में दीपक की प्रभा की तरह है जुड़ा हुआ-सम्बद्ध होता है, और कोई दूर तक फैले हुए अन्धकार से भरे प्रदेश में (किसी " जगह) रखे हुए प्रदीप की तरह असम्बद्ध होता है। इनमें जो असम्बद्ध होता है, वह या तो " संख्येय (योजन प्रमाण) होता है या असंख्येय / पुरुष का अर्थ है- जो सुख-दुःखों से पूर्ण है, या पुर (देह) में शयन (निवास) करता है। पुरुष से होने वाली अबाधा यानी अन्तराल, उस , पुरुषकृत अन्तराल के सहित होने से वह अवधिज्ञान (असम्बद्ध होता है और) क्षेत्र की दृष्टि , से यहां निरूपित है। भावार्थ यह है कि असम्बद्ध अवधिज्ञान क्षेत्र की दृष्टि से योजन की , ca अपेक्षा से संख्येय होता है या असंख्येय, और इसी प्रकार सम्बद्ध अवधिज्ञान को भी " ca समझना चाहिए। इस प्रकार स्वतन्त्र रूप से अवधिज्ञान की पर्यालोचना की गई। (हरिभद्रीय वृत्तिः) / इदानीमबाधया चिन्त्यते- अत्र चतुर्भङ्गिका, तत्र संख्येयमन्तरं संख्येयोऽवधिः, ल संख्येयमन्तरम् असंख्येयोऽवधिः, असंख्येयमन्तरं संख्येयोऽवधिः, असंख्येयमन्तरca मसंख्येयोऽवधिरिति चत्वारोऽपि विकल्पाः संभवन्ति, संबद्धे तु विकल्पाभावः। तथा लोके' " चतुर्दशरज्ज्वात्मके पञ्चास्तिकायवति। 'अलोकेच' केवलाकाशास्तिकाये।चशब्दः समुच्चयार्थः। / लोके अलोके च संबद्धः कथम्? -पुरुषे संबद्धो लोके च-लोकप्रमाणावधिः, पुरुषे, न . लोके-देशतोऽभ्यन्तरावधिः।न पुरुषे, लोके-शून्यो भङ्गः ।न लोके न पुरुषे- बाह्यावधिः। . (वृत्ति-हिन्दी-) अब 'अबाधा' यानी 'अन्तराल' को लेकर विचार किया जा रहा है। : / यहां एक चतुर्भङ्गी बनती है। जैसे- (1) संख्येय (योजन) अन्तराल के बाद संख्येय (योजन) 888888888 88& 22322222222 2333332 - 80@ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ @ 269

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