Book Title: Avashyak Niryukti Part 01
Author(s): Sumanmuni, Damodar Shastri
Publisher: Sohanlal Acharya Jain Granth Prakashan

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Page 304
________________ CARRRRRRece 99000999999999 2222333333333333333333333333330 नियुक्ति-गाथा-65 अयमेव न्यायौ यदुत-साकारानाकारौ अवधिविभङ्गौ जघन्यादारभ्य तुल्याविति, न तूत्कृष्टौ। a ततः परेण' इति, परतः अवधिरेव भवति, मिथ्यादृष्टीनां तत्रोपपाताभावात् / स च क्षेत्रतः . असंख्येयो भवति, योजनापेक्षयेति गाथार्थः // 65 // a (वृत्ति-हिन्दी) जो (द्रव्य के) विशेष रूप को ग्रहण करता है, वह साकार (उपयोग) होता है, जो 'ज्ञान' इस नाम से कहा जाता है। किन्तु जो (द्रव्य के) सामान्य रूप को ग्रहण , & करता है, वह चाहे अवधि हो या विभंग (मिथ्यात्वयुक्त अवधि) हो, तो वह (अवधि) दर्शन : कहा जाता है। इनमें साकार व अनाकार तथा जघन्य अवधि या विभंग -ये तुल्य ही होते हैं, . क्योंकि सम्यग्दृष्टि का जो 'अवधि' होता है, वही मिथ्यादृष्टि का 'विभंग' होता है। लोकपुरुष की ग्रीवा के पास जो (देवलोक) स्थित हैं, वे अवेयक विमान हैं। वे और . उनमें (ही) जो ऊपर वाले हैं, अतः उपरिम व ग्रैवेयक -इन दोनों का समास हुआ। 'तो' / व शब्द का यहां 'भी' अर्थ दृष्टिगोचर होता है। (अतः अर्थ होगा-) भवनपति देवों से लेकर " * उपरिवर्ती ग्रैवेयकं तक में भी यही नीति (रीति) जाननी चाहिए कि साकार हो या अनाकार, 2 अवधि हो या विभंग, जघन्य से लेकर (उत्कृष्ट तक) तुल्य ही हैं, (परस्पर) उत्कृष्ट नहीं होते। & इनसे आगे (वयकों से आगे, अनुत्तर विमानों में), 'अवधि' ही होता है, विभंग नहीं, . क्योंकि वहां मिथ्यादृष्टि का उपपात (जन्म) नहीं होता। वह 'अवधि' भी क्षेत्र की दृष्टि से / योजनों की दृष्टि से असंख्येय होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 165 // ca विशेषार्थ मिथ्यादृष्टि के अवधिज्ञान को ही 'विभङ्गज्ञान' कहा जाता है। इन दोनों के दो-दो भेद हैं- 2 साकार व अनाकार। अनाकार अवधि को अवधि-दर्शन, और साकार अवधि को अवधि ज्ञान कहा जाता है। अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, विभङ्गज्ञान व विभङ्गदर्शन -ये चारों भवनपति देवों से लेकर ऊपर & के ग्रैवेयक विमानों तक होते हैं, और जघन्य से लेकर यथोचित उत्कृष्ट रूप वाले तक होते हैं, किन्तु " ये सभी क्षेत्र आदि की दृष्टि से समान ही होते हैं। तात्पर्य यह है कि जो जघन्य तुल्य स्थिति वाले देव . होते हैं, उनके जघन्य अवधि ज्ञान-दर्शन तथा विभङ्ग ज्ञान-दर्शन-क्षेत्र आदि विषय के ग्रहण की दृष्टि से से -परस्पर-तुल्य होते हैं। इसी तरह मध्यम तुल्य स्थिति वाले जो देव हैं, उनके मध्यम अवधि- 1 ce विभंग-ज्ञान-दर्शन भी उसी तरह परस्पर तुल्य होते हैं। इसी रीति से उत्कृष्ट-तुल्य स्थिति वाले जो देव " होते हैं, उनके उत्कृष्ट अवधि-विभंगादि भी पूर्वोक्त रीति से परस्पर-तुल्य होते हैं। चूंकि अनुत्तर धिमानों में मिथ्यादृष्टि नहीं उत्पन्न होते, इसलिए वहां अवधि (दर्शन-ज्ञान) ही होता है, विभङ्ग (ज्ञान - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 263 888888888888888888888888888888888888888888888 3333333333333

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