Book Title: Avashyak Niryukti Part 01
Author(s): Sumanmuni, Damodar Shastri
Publisher: Sohanlal Acharya Jain Granth Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 287
________________ 3333333333333333333 3333 2333333333333333333 Racecacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000(हरिभद्रीय वृत्तिः) व्याख्यातमानुगामुकद्वारम्। इदानीमवस्थितद्वारावयवार्थप्रतिपादनाय गाथाद्वयमाह (नियुक्तिः) खित्तस्स अवठ्ठाणं, तित्तीसं सागरा उ कालेणं। दव्वे भिण्णमुहुत्तो, पज्जवलंभे य सत्तट्ठ // 17 // अद्धाइ अवट्ठाणं, छावट्ठी सागरा उ कालेणं। उक्कोसगं तु एयं, इक्को समओ जहण्णेणं // 18 // [संस्कृतछायाः-क्षेत्रस्य अवस्थानं त्रयस्त्रिंशत् सागरास्तु कालेनाद्रव्ये भिन्नमुहूर्तः पर्यवलाभेच, सप्ताष्ट // अद्धायामवस्थानं द्वाषष्टिः सागरास्तु कालेन / उत्कृष्टकं तु एतदेकः समयो जघन्येन।].... (वृत्ति-हिन्दी-) आनुगामुक द्वार का कथन पूर्ण हुआ। अब अवस्थित द्वार के अन्तर्गत अवधिज्ञान रूपी पदार्थ का निरूपण करने हेतु दो गाथाएं कह रहे हैं (57-58) (नियुक्ति-अर्थ-) क्षेत्र व काल की अपेक्षा से (अवधिज्ञान की) अवस्थिति तो तैंतीस सागर की हुआ करती है। द्रव्य की अपेक्षा से भिन्न मुहूर्त (अपूर्ण मुहूर्त अर्थात् अन्तर्मुहूर्त), काल तक तथा एक पर्याय की उपलब्धि में सात-आठ समयों तक (अवधिज्ञान की) अवस्थिति , होती है।57॥ (लब्धि की अपेक्षा से) इसकी (कालिक) अवस्थिति (साधिक) छासठ सागरोपम , & की होती है। यह (काल की दृष्टि से) उत्कृष्ट अवस्थिति है, जघन्यतः तो अवस्थिति एक समय : की हुआ करती है 58 // (हरिभद्रीय वृत्तिः) प्रथमगाथाव्याख्या-अवस्थितिरवस्थानं तद् अवधेराधारोपयोगलब्धितश्चिन्त्यते।तत्र क्षेत्रमस्याधार इतिकृत्वा क्षेत्रस्य संबन्धि तावदवस्थानमुच्यते- तत्राविचलितः सन् , 'त्रयस्त्रिंशत्सागराः' इति त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यवतिष्ठते अनुत्तरसुराणाम्।तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, 1 स चावधारणे, त्रयस्त्रिंशदेव। कालेनेति' कालतः कालमधिकृत्य 'अर्थाद्विभक्तिपरिणामः'। " (वृत्ति-हिन्दी-) प्रथमगाथा (सं. 57) की व्याख्या इस प्रकार है- अवस्थान का अर्थ " / है- अवस्थिति / अवधिज्ञान के आधारभूत (क्षेत्र आदि) में उपयोग की लब्धि की दृष्टि से (वह | - 24689&(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) -

Loading...

Page Navigation
1 ... 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350