Book Title: Avashyak Niryukti Part 01
Author(s): Sumanmuni, Damodar Shastri
Publisher: Sohanlal Acharya Jain Granth Prakashan

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Page 289
________________ R acecacaana श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 90000mm 222222323323232 22222322222223333333333223321 (हरिभद्रीय वृत्तिः) (द्वितीयगायाव्याख्या-) इहलब्धितोऽवस्थानं चिन्त्यते।अद्धा-अवधिलब्धिकालः।अत्र .. & अद्धायाः-कालतोऽवस्थानम् / अवधेर्लब्धिमङ्गीकृत्य तत्र चान्यत्र क्षेत्रादौ 'षट्षष्टिसागराः', इति षट्षष्टिसागरोपमाणि।तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् मनागधिकानि। 'कालेनेति'-कालतः / उत्कृष्टमेवेदं कालतोऽवस्थानमिति। जघन्यमवस्थानमाह- तत्र द्रव्यादावप्येकः समयो / जघन्येनावस्थानमिति। तत्र मनुष्यतिरश्चोऽधिकृत्य सप्रतिपातोपयोगतोऽविरुद्धमेव, ce देवनारकाणामपि चरमसमयसम्यक्त्वप्रतिपत्तौ सत्यां विभङ्गस्यैवावधिरूपापत्तेः, तदनन्तरं - च्यवनाच्चाविरोध इति गाथार्थः // 18 // (वृत्ति-हिन्दी-) द्वितीय (58वीं) गाथा की व्याख्या इस प्रकार है- यहां लब्धि की / a दृष्टि से अवधिज्ञान की अवस्थिति का विचार चल रहा है। 'अद्धा' (यानी लब्धि) का काल की . * अपेक्षा से अवस्थान, वह इस प्रकार है- अवधिज्ञान की लब्धि को ध्यान में रखकर विचार, करें तो, उस (अवधिज्ञान के आधारभूत) क्षेत्र में या अन्यत्र क्षेत्र आदि मे छासठ सागरोपम: की अवस्थिति उसकी होती है। 'तो' शब्द विशेषता अर्थ का वाचक है, इसलिए अर्थ फलित है- कुछ अधिक छासठ सागरोपम। काल की अपेक्षा से यह अवस्थिति उत्कृष्ट है। अब जघन्य अवस्थिति का कथन कर रहे हैं- द्रव्य आदि में उसकी जघन्य अवस्थिति एक समय : व की होती है। मनुष्य व तिर्यञ्चों में विचार करें तो प्रतिपाती उपयोग की अपेक्षा से (उक्त जघन्य " a स्थिति के सद्भाव में) कोई विरोध वाली बात नहीं है। इसी तरह, देवों व नारकों में भी, जब 4 अंतिम समय में सम्यक्त्व से च्युत होने पर, विभंग ज्ञान ही अवधिज्ञान रूप बन जाता है, . उसके बाद च्यवन हो, तो वहां, भी (एक समय वाली अवधिज्ञान की जघन्य स्थिति मानने : में) कोई विरोध की बात नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||58 // ca विशेषार्थ 'अद्धा' से तात्पर्य है-अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम रूप लाभ, लब्धि भी कहा जाता है। द्रव्यों में (अवधिज्ञान का) उपयोग हो या न भी हो, तो भी उक्त लब्धि तो विद्यमान होगी ही। उक्त : क्षयोपशमरूप लब्धि का निरन्तर जितने काल तक उत्कृष्ट अवस्थान रहता है, वह छासठ सागरोपम , काल प्रमाण है। इस काल को 'साधिक' 'कुछ अधिक' भी माना गया है, अर्थात् छासठ सागरोपम से / भी कुछ समय अधिक काल की उक्त अवस्थिति होती है।जो जीव विजय आदि अनुत्तर विमानों में दो 248

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