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Aptamīmāṁsā
The use of the term 'indescribable' by our rivals amounts to 'nonexistence' of reality:
अशक्यत्वादवाच्यं किमभावात्किमबोधतः । आद्यन्तोक्तिद्वयं न स्यात् किं व्याजेनोच्यतां स्फुटम् ॥५०॥
सामान्यार्थ - (यदि क्षणिकैकान्त-वादी बौद्धों से पूछा जाए -) तत्त्व अवाच्य क्यों है? क्या अशक्य (कथन करने की असमर्थता) होने से अवाच्य है, या अभाव (अस्तित्व-विहीन) होने से अवाच्य है, या आप में ज्ञान न होने से अवाच्य है? पहला और अन्त के विकल्प तो बनते नहीं हैं (आप को स्वीकार नहीं हो सकते हैं)। यदि अभाव होने से वस्तु-तत्त्व अवाच्य है तो बहाने बनाने से क्या लाभ? स्पष्ट कहिए कि वस्तु-तत्त्व का सर्वथा अभाव है।
To the question as to why reality is pronounced as 'indescribable' the possible answers are (a) due to lack of strength, (b) due to its non-existence, and (c) due to lack of knowledge. The first and the third options cannot be accepted by the proponents of ‘indescribability' (as this would mean inadequacy on their part). Then why pretend (and not concede that as per your assertion reality is 'indescribable' because it does not exist; it amounts to nihilism – sūnyavāda)? Speak clearly.
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