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Verse 67
Fault in accepting atoms as absolutely non-distinct:
अनन्यतैकान्तेऽणूनां संघातेऽपि विभागवत् । असंहतत्वं स्याद्भूतचतुष्कं भ्रांतिरेव सा ॥६७॥
सामान्यार्थ - (बौद्ध-मत के अनुसार -) यदि अनन्यतैकान्त में परमाणुओं की अनन्यता का एकान्त माना जाए तो स्कन्ध-रूप में उनके मिलने पर भी विभाग के समान परस्पर असम्बद्धता ही रहेगी। और ऐसा होने पर बौद्धों के द्वारा मान्य जो भूतचतुष्क (परमाणुओं का पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ऐसे चार स्कन्धों के रूप में कार्य) है वह वास्तविक न होकर भ्रान्त ही होगा।
If it be maintained that the atoms (aņu) are absolutely nondistinct (oneness-ananyatva) then these should remain as such (non-distinct) even after their union to form molecules (skandha), creating thereby a substance. Under such a regime the four basic substances (bhūtacatuṣka of the Buddhists) - earth (prthvī), water (jala), fire (agni), and air (vāyu) - which are but the effects of the union of atoms, will turn out to be illusory.
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