Book Title: Aptamimansa
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 160
________________ Aptamīmāṁsā The word 'soul' must have a corresponding external object (bāhyārtha): जीवशब्दः सबाह्यार्थः संज्ञात्वाद्धेतुशब्दवत् । मायादिभ्रान्तिसंज्ञाश्च मायाद्यैः स्वैः प्रमोक्तिवत् ॥८४॥ सामान्यार्थ – 'जीव' शब्द संज्ञा होने से बाह्य अर्थ सहित है; जो शब्द संज्ञा या नामरूप होता है वह बाह्य अर्थ के बिना नहीं होता है जैसे 'हेतु' शब्द। (धूम शब्द जब 'हेतु' की तरह प्रयुक्त होता है तब वह 'धुआँ' बाह्य पदार्थ के अस्तित्व के बिना नहीं होता है।) जिस प्रकार 'प्रमा' शब्द का बाह्य अर्थ पाया जाता है, उसी प्रकार 'माया' आदि भ्रान्ति की संज्ञाएँ भी अपने भ्रान्ति रूप अर्थ से सहित होती हैं। The word 'jiva’(soul), being a designation (samjñā), must have a corresponding external object (bāhyārtha) that it signifies; a word, being a designation, is always associated with a corresponding external object, just as the word 'hetu' – the middle term. (The word 'hetu' may have 'smoke' as the corresponding external object.) As the word 'pramā' (valid apprehension) has a corresponding object that signifies valid apprehension, similarly words like ‘māyā'(deceit), signifying an illusory cognition, have corresponding objects that signify illusory cognition. 134

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