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Āptamīmāmsā
The speaker (vaktā) having the piece of cognition (bodha), the hearer (śrotā) hearing the sentence (vākya), and the subject (prāmatā) having the knowledge (pramā ), are distinct:
वक्तृश्रोतृप्रमातृणां बोधवाक्यप्रमाः पृथक् । भ्रान्तावेव प्रमाभ्रान्तौ बाह्याऽर्थी तादृशेतरौ ॥८६॥
सामान्यार्थ - वक्ता का जो (अभिधेय-विषयक) बोध ( वाक्य की प्रवृत्ति में कारण) होता है, श्रोता ( अभिधेय - परिज्ञान के लिए) जिस वाक्य को सुनता है, और प्रमाता को जो प्रमा (अभिधेय - विषय में योग्य-अयोग्य अथवा सत्य-असत्य का निर्णय) होता है - ये तीनों पृथक्-पृथक् व्यवस्थित हैं। (इस प्रकार विज्ञानाद्वैतता बाधित ठहरती है ।) प्रमाण के भ्रान्त होने पर अन्तर्ज्ञेय और बहिर्ज्ञेय रूप बाह्यार्थों का विवेचन भी भ्रान्त ही ठहरेगा ।
The speaker (vaktā) with a particular piece of cognition (bodha), the hearer (śrotā) receiving the auditory perception in the form of the sentence (vākya), and the subject (pramātā) in whom valid knowledge (prama) inheres as an attribute, are distinctly established. In case the method of knowledge (pramāna) is fallacious, the corresponding external objects (bāhyārtha) - in the form of internal and external cognition too will be fallacious.
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